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"शरीर नहीं कहता-'मैं हूं '। यह तुम हो जो कहते हो -'मैं शरीर हूं।' पता लगायें यह 'मैं' कौन हूँ? इसका स्रोत खोजने से यह अदृश्य हो जायेगा।"

 "शरीर नहीं कहता-'मैं हूं '। यह तुम हो जो कहते हो -'मैं शरीर हूं।' पता लगायें यह 'मैं' कौन हूँ? इसका स्रोत खोजने से यह अदृश्य हो जायेगा।"



 "शरीर नहीं कहता-'मैं हूं '।

यह तुम हो जो कहते हो -'मैं शरीर हूं।'

पता लगायें यह 'मैं' कौन हूँ?

इसका स्रोत खोजने से यह अदृश्य हो जायेगा।"


हम हमारी बुद्धि से सोचे चले जाते हैं महापुरुषों के अनुभवानुसार सत्य का पता लगाने की कोशिश ही नहीं करते फलत:कोल्हू के बेल की तरह एक ही जगह में चक्कर काटते रहते हैं।चलते बहुत हैं,पहुंचते कहीं नहीं।

अनुभवी कहते हैं-शरीर नहीं कहता मैं हूं,जैसे ये कुर्सी या टेबल नहीं कहते-मैं हूं।ये जड़ हैं, नहीं कहते।इसी तरह शरीर अपने अस्तित्व की घोषणा नहीं करता।वह जड़ है।एक वस्तु या साधन की तरह है।साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।साधन की तरह उपयोगी है इतना ही।

फिलहाल इसे एक तरफ रख दें।इसे भूल जायें,इसकी बात न करें,अपनी बात करें क्योंकि हम ही मैं मैं करते हैं।

यही नहीं चेतन मैं,यह जड़ शरीर हूं ऐसा भी मानते हैं।

यह मान्यता भूल भरी है।

मैं देह आधारित भी है और स्व आधारित भी है।

देह आधारित मैं के स्रोत का पता लगाना चाहिए।देह बीच में न आये तो स्व आधारित मैं वैसे ही स्व में समा जाता है। पृथक नहीं रहता।

अभी स्व आधारित मैं की जगह देह आधारित मैं क्रियाशील है।

"मैं शरीर हूं"।

अहंकार इसी को कहा है।

शरीर मेरा है यह देहाभिमान है।

देह का अहंकार,देह का अभिमान रजोगुण, तमोगुण को सघन बनाते हैं। आदमी पूरा देहवादी बन जाता है। देह परायण हो जाता है।

सत्वगुण से विरलता आती है।

यह देह आधारित मैं ग्रंथि है-हृदयग्रंथि जो जड़ शरीर और चेतन आत्मा के मिलने से बनी है।इसे नष्ट होना चाहिए।यह दुख का मूल है।नष्ट होती है, छिन्नभिन्न होती है इसके स्रोत का पता लगाने से।

स्रोत के नाम पर हम भगवान,ब्रह्म, परमात्मा किसी भी शब्द का प्रयोग कर लेते हैं।ये बौद्धिक प्रयोग काम नहीं आते।योग चाहिए।योग हृदय से जोड़ता है। वही मूल स्रोत है।वह ईश्वर का निवास है जैसा कि गीता का कथन है-ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेर्जुन तिष्ठति।

इस श्लोक को प्रायः उद्धृत करता हूं ताकि ध्यान मनबुद्धि से हटकर हृदय में आये।

मनबुद्धि में रहनेवाला चित्त उच्चाटित है,बहिर्मुखी है।

हृदय में रहने वाला चित्त स्वस्थ है,स्वमुखी है।

मैं कब,कहां,क्या हूं?

तब वहां अन्य की जगह अनात्मा हूं।

अभी यहां स्व की जगह आत्मा हूं।

चित्त अभी यहां स्व को पूरी तरह से समर्पित हो रहे यही अभिप्राय है।

अभी चित्त पूरी तरह से 'पर' को समर्पित है।दूसरे क्या करते हैं,क्या कहते हैं यही मुख्य विषय है जबकि मुख्य विषय यह होना चाहिए कि खुद मैं क्या सोचता हूं,मैं क्या करता हूं,कहता हूं?

एक मित्र पूछते हैं-सुखदुख में सहज कैसे रहना चाहिए?

स्वाभाविक प्रश्न है। बहुत लोग पूछते हैं।तो इसके उत्तर का पता लगाना है तो शरीर को एक तरफ रख देना होगा।यह जड़ वस्तु की तरह है।शरीर मैं मैं नहीं कहता,मैं मैं हम कहते हैं।

हम कौन हैं?यहीं भूल होती है।जिसे भी पूछा जाय वह यही कहता है मैं शरीर हूं या शरीर आधारित यह,वह हूं,अमीर गरीब,छोटा बड़ा,मूर्ख विद्वान, स्त्री पुरुष हूं।

देह पर आधारित दिया गया परिचय वास्तविक परिचय नहीं है। स्वयं पर आधारित दिया गया परिचय ही वास्तविक है।

मैं कौन हूं?मैं हूं।

इस मैं हूं को अनुभव करने से मैं छोटाबडा हूं, अमीर गरीब हूं, स्त्री पुरुष हूं ऐसा मानने वाला मैं(विचार) तिरोहित हो जाता है।

स्रोत की खोज से झूठा मैं या अहंकार लुप्त हो जाता है।

हम स्रोत की बौद्धिक खोज में लग जाते हैं कि क्या है यह,कहां है? फिर ईश्वर संबंधी कल्पना।

बहुत कठिन लगता है।ऐसा मालूम होता है हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है।पता नहीं कब स्रोत को खोज पायेंगे या नहीं खोज पायेंगे।

वस्तुत:मैं यह हूं,वह हूं इस अहम्मन्यता का स्रोत हृदय में मैं हूं अनुभव ही है।

इस मैं हूं अनुभव में टिकने से अहम्मन्यता (मैं शरीर हूं,शरीर आधारित यह या वह हूं) तिरोहित हो जाती है। स्पष्ट रुप से "होने" का अनुभव होता है हृदय में।

यह अस्तित्व बोध है।

यह हर एक को हो ही रहा है फिर भी वह स्रोत को खोज रहा है ताकि वह मिट सके,सुखी हो सके।

यह सत्य है मगर मैं दुखी हूं,मैं सुख चाहता हूं इसके पीछे जो अहम्मन्यता है(मैं कुछ हूं यह मान्यता है)उसे जबर्दस्ती मिटाने का क्या उपाय है?

इसका तो पता लगाना चाहिए।पता लगेगा यह तो कुछ है ही नहीं। इसीलिए ज्ञानी कहते हैं-

अहम्मन्यता की तरह तुम कुछ नहीं हो, अस्तित्व की तरह,बोध की तरह तुम सब कुछ हो।

आदमी अहम्मन्यता की तरह सब कुछ होना चाहता है।दूसरा भी यही करता है।फिर छोटी,बड़ी लहरें आपस में टकराती हैं।

सागर एक ही है,अखंड है।

यह जो होने का अनुभव है,सागर का-सतचित आनन्द का अनुभव है, सीमित लहर के नाम रुप का नहीं।यह बात और है असीम सागर ही सभी सीमित नामरुप वाली लहरों के मूल में है।वही स्रोत है।इसीका पता लगाने के लिए कहा जा रहा है।

क्या होगा जब कोई लहर अपने मूलस्रोत को,सागर को जान लेगी?वह स्व में स्थित,शांत,स्थिर हो जायेगी।दूसरी कोई गति नहीं।

यही नहीं जब उसकी दृष्टि दूसरी लहरों पर जायेगी तो उनके मूलस्रोत के रुप में सागर को जानेगी।अब किससे ईर्ष्या करे,किससे द्वेष,किस पर क्रोध, किस्से क्षोभ, किससे भय,किससे,कैसी चिंता?

यदि लहर,सागर को अनुभव करने के बजाय अपने को तथा सभी को सीमित नामरुपों वाली लहर मानेगी तो वही होगा जो गीता का कथन है-

'इच्छा, द्वेष जन्य सुखदुखादि द्वंद्व रुप मोह से संपूर्ण प्राणी अत्यंत अज्ञानता को प्राप्त हो रहे हैं।'

सब एक दूसरे को देख रहे हैं,स्रोत को अनुभव नहीं कर रहे।सभी लहरें एक दूसरे के साथ क्रिया प्रतिक्रिया में हैं।वे स्वयं संकुचित हैं,सागर को भी संकुचित बना देती हैं।सागर किसीके वश में है नहीं।वह सभी लहरों के सभी नामरुपों का आधार है।

ये नामरुप की सीमितता मन के कारण है।स्रोत की असीमता का अनुभव हो तो मन का अपनी सीमितता सहित लुप्त हो जाना तय है। तभी सच्चा सुख है, स्वतंत्रता है,आनंद है।

जो बौद्धिक दृष्टि से यह सब पढ़ेंगे वे कहेंगे इसमें खास बात क्या है?ऐसे लेखों से भरे पडे हैं पुस्तकालय।

लेकिन जो इसके पीछे रहे सत्य को अनुभव करेगा उसे शांति हो जायेगी।जीवन क्षुद्र अहम्मन्यता से परिचालित न रहेगा।

सभी सीमित नामरुप वाली लहरें सत्ताहीन हैं जो अभी परस्पर बड़े उद्वेग का कारण बनी हुई हैं।हर समय परचिंतन।केवल सत्ता को नहीं जानने से,सागर का अनुभव नहीं होने देने से।

लहर का चिंतन नहीं करना है,सागर का अनुभव करना है बल्कि होने देना है।वह हो ही रहा है अपने आप।

जो मैं हूं अनुभव होने देता है,वह सबके मैं हूं को अनुभव होने देता है।अनुभव की गहराई में सब एक है।सागर ही है।शांति है।परम मौन है।(तमेव शरणं गच्छ-गीता।)

उपनिषद् कहते हैं-उसे जानो,उसे अनुभव करो। वही है सब कुछ।

उसे जाने बिना वह सुख शांति,आनंद संभव नहीं जिसकी खोज जन्मों से जारी है।

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