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"मैं-देह-हूं" Ii शरीर के भीतर का आकाश और बाहर का आकाश एक ही है।
"मैं-देह-हूं"
इस विचार को,पृथकता रुपी इस दीवाल को गिरा दो,और तब बाह्य और आंतरिक एक हो जायेंगे।'
शरीर के भीतर का आकाश और बाहर का आकाश एक ही है।वही हमारा वास्तविक स्वरूप है।शरीर की दीवारों के कारण अलग अलग लगता है।यह दिखता ही नहीं।अलग अलग भी दिखे तो कुछ विचार हो।शरीर ही दिखता है।आंख मींचने पर भी शरीर ही है और तब यह हमें हमारे "व्यक्तिव ' के रुप में दिखता है।इसकी एक छबि बनती है(इमेज)। दूसरे शरीरों की भी छबि बनती है
।शरीर की क्या छबि वह तो प्रकृति निर्मित जैसा है वैसा है।जीव(आत्मा)की भी क्या छबि,क्या इमेज? जबरदस्ती भले ही आरोपित करें बाकी तो वह निरंजन निराकार ही है।उसकी कोई छबि,कोई इमेज नहीं बन सकती।
छबि बनती है अहंकार की जो अहम्मन्यता मात्र है।मैं कुछ हूं-यह मान्यता है।मैं छोटा हूं, बड़ा हूं,अमीर हूं,गरीब हूं, स्त्री हूं,पुरुष हूं-यह सब देह आधारित मान्यता है। साधारण मान्यता होती है तो भी ठीक था मगर यह ले लेती है गंभीर रुप।यह शरीर ही नहीं अपितु अंत:करण मनबुद्धि चित्त अहंकार के साथ जुड़कर द्रष्टा तथा दृश्य का रुप ले लेती है।इस तरह कार्य-कारण में भी बंट जाती है।
कोलेज में एक कविता पढ़ते थे-यह विश्व "बहुत ज्यादा" है हमारे साथ।
कविता अंग्रेजी में थी।
गीता इसके विपरीत बात कहती है।गीता का कथन है-
"यह जीवात्मा आपही तो अपना मित्र हैं और आपही अपना शत्रु है। अर्थात् और कोई दूसरा शत्रु या मित्र नहीं है।'
किसी से सुख मिलता मालूम हो तो वह अपना मित्र प्रतीत होता है,कष्ट मिलता मालूम हो तो वह शत्रु जान पड़ता है। वास्तविकता यह है कि वे सुखदुख हमारे भीतर से आते हैं,बाहर से नहीं अतः गीता का कथन है-'उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है कि जिस जीवात्मा द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है और जिसके द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है उसका वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है।।'
बाहर से दृष्टि हटकर खुद पर आये तो खुद अपना शत्रु या मित्र मालूम हो सकता है।सुखद अनुभव है तो अपना मित्र,असुखद अनुभव है तो अपना शत्रु।
आदमी दिन भर बल्कि जीवन भर इस सुखद असुखद अनुभव के बीच में डोलता रहता है।येही राग द्वेष हैं। हमें अपने आपसे राग होता है,द्वेष होता है।
दृष्टि बाहर होने से राग द्वेष के कारण बाहर मालूम होते हैं तो बाहर जो दिखाई देते हैं उन्हें अपना शत्रु या मित्र मान लिया जाता है।
बाहर कुछ नहीं है।गीता साफ कहती हैं हम ही हमारे शत्रु या मित्र हैं।जीतने का अर्थ है अगर हम असुखद अनुभव होते हैं तो हमें अपने आपको सहना होगा।इसी अर्थ में मन और इंद्रियों सहित शरीर को 'आत्मा' कहा है।
उससे तादात्म्य करके हम अनात्मा हो गये हैं।
इसमें सुखद,असुखद अनुभव हैं ही।वे कहां जायेंगे? हमारे ही साथ हैं।
अगर उन अनुभवों को सह सकें तो हम अपने मित्र, नहीं सह सकें तो हम अपने शत्रु।
भ्रम से हम सोचते हैं बाहर कुछ है जो सहन होता है या सहन नहीं होता।
सत्य नहीं है यह बात।वास्तव में हम ही अपने को सहन होते हैं या सहन नहीं होते। बाहरी तो जैसा भी है निमित्त है। ज्ञानी कहते हैं-बाहरी निमित्त को धन्यवाद दो क्योंकि उससे मालूम पड़ता है कि हमारे भीतर क्या क्या सुखद,असुखद भरा पड़ा है।
इसे जाननेवाले का ध्यान बाहरी से हटकर पूरी तरह से खुद पर आ जाता है कि अरे मैं ही सुखद हूं।
मैं ही पीड़ादायक हूं।
मैं ही पीड़ादायक हूं तो खुद को जीतना या सहना रहा या नहीं?
यह रहस्य है।इसे जाने बिना, समाधान होता नहीं।हम सम्मोहित होकर बाहर देखते रहते हैं जैसे किसीने जादू कर दिया हो।यह माया का जादू है।लोग एक दूसरे को भलाबुरा मानने में लगे रहते हैं।
पर बाहर कहीं कुछ नहीं है।
इसी तरह हम ही सुखद हैं तो क्या करना मगर इसे जानते नहीं। नहीं जानते इसलिए बाहर सुखद प्रतीत होते व्यक्ति, वस्तु आदि पर कब्जा करना चाहते हैं।
फिर वही भटकन।कितना उपद्रव है तथाकथित सुखद के कारण।
नहीं।मैं ही सुखद हूं शरीर,मन, इंद्रियों के साथ इसलिए मुझे खुद को ही सहना है या जीतना है।
यदि मैं बाहर किसीको सुखद मानता हूं तो मैं अपना शत्रु हूं;
यदि मैं अपने आपको सुखद जानता हूं तो मैं अपना मित्र हूं।
इसमें कोई बाधा नहीं।यह सुख आध्यात्मिक हो जाता है।सुख को बाहरी से जोडने तथा राग द्वेष की प्रधानता होने से वह भौतिक हो जाता है।सुख आंतरिक है तो अपने को सहने की जरूरत नहीं।जरुरत इसलिए पड़ती है क्योंकि दुख आंतरिक प्रतीत होने पर भी वह स्वीकार नहीं होता।उसके साथ मैत्री करना असंभव जैसा लगता है।
लेकिन रास्ता तो निकालना ही होगा व्यक्ति जैसा हो।या तो वह अपने आंतरिक कष्ट को सह ले,जीत ले या मित्र बना ले।
तो ही अपने द्वारा अपना उद्धार संभव है।
'उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।'
इसका अर्थ है अपने आपको खड्डे में न डालें।हम पीड़ादायक स्वयं के मित्र हैं तो हम अपने सच्चे मित्र हैं,हम पीड़ादायक स्वयं के शत्रु हैं तो अपने आपके परम शत्रु हैं।अपना शत्रु होकर अपना भला नहीं किया जा सकता है,अपना मित्र होकर ही अपना भला किया जा सकता है।
इसे थोड़े भाग्यशाली लोग ही समझते हैं बाकी सब बाहरी को अनुभव करने में लगे हैं।अनुभव तो स्वयं ही हो रहा है हर हाल में इसलिए बाहरी को सहना वस्तुत:अपने आपको सहना है; बाहरी को न सहना,अपने आपको नहीं सहना है।
अपने आपको सहकर अपना साक्षी हुआ जा सकता है-आत्मसाक्षी।
हम अपने आपको सहते नहीं,अपने शत्रु बने बैठे हैं और आत्मसाक्षी की साधना कर रहे हैं तो यह कैसे होगा? हमें अपना मित्र होना होगा,हमारा अनुभव स्वरुप चाहे जैसा भी हो।
इसमें बाधा यह है कि सुखदुख का कारण हम बाहरी को मानते हैं।अब दृष्टि ही सही नहीं है तो सही बात कैसे मालूम पड़ेगी?
सही बात तो तभी मालूम पड़ेगी जब इस वास्तविकता की ओर ध्यान आजाता है कि सुखदुख का कारण "बाहर है ही नहीं ",
मैं ही हूं,मेरे सुख दुख का असली कारण।
एक बार यह पता चल जाय तो बहुत आसानी हो जाती है।इसे जानने पर भी कभी कभी आवरण आ सकते हैं, बाहरी व्यक्ति, घटना परिस्थिति हैं मेरे सुख दुख के असली कारण-ऐसा भ्रम हो सकता है, बाहरी के साथ संघर्ष, आक्रामकता,पलायन आदि हो सकते हैं लेकिन धीमे धीमे सब ठीक हो जाता है।तब तक ऐसे साधकों के साथ रहना ठीक है जो इस विषय को अच्छे से समझते हैं।
तात्पर्य है हमें किसीको नहीं सहना है, हमें राजी राजी अपने आपको ही सह पाने में समर्थ होना है- अपने होने पन को पूरी तरह से स्वीकारते हुए।तब बाहर किसी से बचने की जरूरत न रहेगी।बाहर किसी से भी बचना अमानवीय है।
करे कोई,भरे कोई।
प्रेम तो निडर होता है,निर्भीक होता है।
प्रेम है नहीं।
आदमी खुद से बचता है।
जो खुद से बचता है वह सबसे बचता फिरता है।जो अपने साथ है वह सबके साथ है।वह अपना मित्र भी है,और सभी का मित्र भी।
यह सब इसलिए समझना है क्योंकि मैं शरीर हूं यह विचार,यह पृथकतारुपी दीवाल बनी हुई है।इस दीवाल को गिरा दिया जाय तो बाह्य और आंतरिक एक हो जाते हैं। ज्ञानी कहते हैं-
"चेतना में घट रहे सारे परिवर्तन इस 'मैं देह हूं' के भाव के कारण ही घटते हैं।मन को इस भाव से रहित कर देने पर मन स्थिर हो जाता है।शुद्ध सत्ता किसी भी अनुभवविशेष से मुक्त होती है।"
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