जीवन कठिन तब लगता है जब हम स्वयं को बदलने के बजाय दूसरों को बदलने का प्रयास करते हैं।"
"जीवन कठिन तब लगता है जब हम स्वयं को बदलने के बजाय
दूसरों को बदलने का प्रयास करते हैं।"
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यहां कोई किसी से बंधा हुआ नहीं है, यहां हर आदमी अपने आपसे बंधा हुआ है-शरीर से,अंत:करण से।उसे बदलना व्यर्थ है।उसे छुड़ाना सार्थक है।और वही छुड़ा सकता है जो स्वयं से छूटा हो अपने कहे जाते शरीर,अंत:करण से। उन्हें बदलना नहीं पड़ता।वे खुद बदलते रहते हैं।हम धीरज खोकर स्वत: बदलनेवाले को बदलने का प्रयास करते हैं।ऊर्जा नष्ट होती है। सफलता न मिलने से निराशा होती है।
शरीर,अंत:करण प्रकृति है और प्रकृति परिवर्तनशील है।जो प्रकृति को बदलना चाहता है वह अज्ञानी है।
जो खुद जा रहा है उसे क्या रोकना,स्वयं को रुकना चाहिए।
इसका अर्थ यह नहीं कि स्वयं को संघर्ष रत दो भागों में बांट लिया जाय-रोकनेवाले और रुकनेवाले में।
बस स्वयं द्रष्टा की तरह रुक जाय तथा दृश्य तो गुजरता ही रहता है अपने आप।
आरंभ में यह चित्त के साथ होगा।चित्त के द्रष्टा रुप में हम रुके रहेंगे,चित्त का दृश्य रुप तो निरंतर जा ही रहा है,बदल ही रहा है।उसे नहीं बदलना है, हमें बदलना है और
" हमारा रुकना ही हमारा बदलना है।"
इसमें श्वास का सहारा लिया जा सकता है।यह कि श्वास को पूरी तरह से खाली करदें शांति से, आराम से तथा फिर रुक जायें।नयी सांस न लें।इस अवस्था में बने रहें जितनी देर हो सके।
यह प्रयास है बाकी निर्विचार अवस्था में प्रायः ऐसा होता है श्वास पूरी तरह से स्वत:खाली हो जाती है।नयी श्वास आती नहीं। विश्राम का, शांति का, सहजता का अनुभव होता रहता है।
हम रुकें।हमारा रुकना,हमारा बदलना है।इसकी जगह हम दूसरों को बदलना चाहते हैं।
क्यों?हम दूसरों को क्यों बदलना चाहते हैं? क्योंकि हमें कोई कष्ट है, तकलीफ है दूसरे से।हम चाहते हैं दूसरे ऐसा न करें,वैसा न करें।वास्तव में तो दूसरों का भी दृश्य रुप, प्रकृति रुप तो बदल ही रहा है।वे उनके स्थिर,ठहरे द्रष्टा रुप को नहीं जानते।उसके लिए तो उन्हें प्रयत्न करना पड़े।वे जानते ही नहीं,प्रयत्न क्या करेंगे?
वे प्रयत्न करें,रुकें तथा दृश्य को, वृत्तियों को अपने से आने और जाने दें तो हमें सुविधा हो सकती है।मेरा मित्र रोष प्रकट करता तीव्र लेकिन अगले ही पल हंस भी जाता।अगर कोई गुस्सा करे,अगले क्षण तुरंत हंसने भी लगे तो उसके गुस्से का कोई मतलब न रहे।मतलब तो तब रहे जब वह उसे पकड़े रखे।
क्रोध तो खुद ही आता है,खुद ही जाता है। हमें ही उसे नहीं पकड़ना चाहिए।उसका औचित्य समर्थन(जस्टिफिकेशन) करना तो उसे पकड़ रखना है,बनाये रखना है।
यह कर्ताभाव है,अहंरुप मूर्छा है,बेहोशी है जिससे हम क्षणभंगुर वृत्तियों को पकड़कर बैठ जाते हैं।
होश चाहिए कि क्रोध स्वत:आया,स्वत:गया हम ऐसे ही रहे जलकमलवत्।
इसकी अनुभूति चाहिए। अनुभूति के लिए स्वयं रुकने का अभ्यास चाहिए।अगर हम दूसरों को बदलने में लगे हैं,दूसरों को बदलना चाहते हैं तो हम कठिनाई उत्पन्न कर रहे हैं।दूसरे तो तब बदलेंगे जब हम बदलेंगे।हम तब बदलेंगे जब हम रुकेंगे।हम तो दूसरों को रोकना चाहते हैं।हम अपने को रोक सकते हैं क्या?
रोक सकते हैं तो यह ज्यादा सरल होगा,दूसरों को रोकने की तुलना में।हमको स्वयं को रुकना है।हम अपने हृदय में,स्वयं में,मूल में शांति से,आराम से विराजे रहें चौबीसों घंटे।ये हम रुक गये,अब किसीको रोकने की जरूरत नहीं।
दूसरे की वृत्तियां स्वत:आती जाती रहेंगी।वह कभी क्रोध करेगा,कभी शांत होगा,कभी प्रेम करेगा,कभी घृणा करेगा।
उसे पता नहीं है।वह अहंकार की मूर्छा से मूर्छित होकर कर्ताभाव से कभी क्रोध करेगा,कभी क्षमा,कभी प्रेम करेगा,कभी घृणा।
यह हमें समझना चाहिए।कोई हमसे घृणा करे, हमें नापसंद करे तो हम विचलित हो जाते हैं।
हम शांत,स्थिर रह सकते हैं यदि हम जान लें कि वह घृणा नहीं कर रहा है,पहले की घृणा जो उसमें मौजूद है वह उठ रही है वह गलती से खुद को उसका कर्ता मानकर घृणा कर्ता बना बैठा है।उसकी घृणा उसे तकलीफ देगी ही। वह खुद से घृणा कर रहा है,हमसे नहीं।वह खुद पर क्रोध कर रहा है,हम पर नहीं।वह खुद पर चिढ़ रहा है,हम पर नहीं।
उसे हमारी समझ की, सहानुभूति की जरूरत है, दोषारोपण की नहीं।
वह अहंकार विमूढात्मा है।अपने को कर्ता मान रहा है, है नहीं।
हो भी नहीं सकता। प्रकृति के गुण ही कर्ता हैं।
हम भी अहंकारविमूढात्मा हैं तो हम भी उसे कर्ता मानेंगे।उसकी कोई मदद संभव नहीं।हम बुरे आदमी की मदद कैसे कर सकते हैं?
वह बुरा आदमी नहीं है।वह फंसा हुआ आदमी है।गुणों के पाशों से देही,देह से बंधा हुआ है। यही नहीं वह अहंकारविमूढात्मा भी है। कर्ता भोक्ता भाव की मूर्छा से ग्रस्त है।
तो जो आदमी बेहोश हो तो उसे होश में लाने का प्रयत्न करना चाहिए या और ज्यादा उसकी बेहोशी बढ़ानी चाहिए?
सार्थक यही है कि उसे होश में लाया जाय लेकिन उसके पहले हमारा खुद का होश में होना जरूरी है वर्ना हम एक दूसरे को कर्ता मानते रहेंगे।अंधे अंधा ठेलिया दोनों कूप पडंत। गीता स्पष्ट कहती है कर्ता प्रकृति के गुण हैं आप नहीं,न और कोई। इसे जानकर आप अपनी गहराई में अपने मूल स्वरूप में स्थित हो जाईये, विश्राम पूर्ण हो जाईये-
शिथिल।यह शिथिलता प्रेम है।प्रेम अनाक्रामक होता है।अगर आप प्रेमपूर्ण होना चाहते हैं तो आपको अनाक्रामक होना होगा, शिथिल होना होगा।प्रेम के बौद्धिक प्रयास बंद करने होंगे।सारे प्रयास आक्रामक हैं चाहे वे प्रेम के ही क्यों न हों!
जब आप सचमुच शिथिल,विश्राम पूर्ण,अपने आपमें हैं तभी संभावना उत्पन्न होती है कि आप प्रेम को समझ सकें,प्रेम की अनुभूति कर सकें।।
"प्रेम संसार की सभी समस्याओं का सबसे बड़ा समाधान है"- यह सुनकर आदमी उसकी कोशिश करता है। वह कोशिश बौद्धिक होती है,कर्ता भोक्ता भाव से प्रेरित होती है।ऐसी कोशिश स्व में रहने,स्वस्थ होने में बाधक है। रचनात्मकता तो तभी संभव है जब पूर्ण स्वस्थता हो।
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