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!!सब काल्पनिक है!!



  •  !!सब काल्पनिक है!!



कभी सिनेमाघर में इसका प्रयोग करें। यह एक अच्छा ध्यान है। बस इतना स्मरण रखने की चेष्टा करें कि यह काल्पनिक है, यह काल्पनिक है...स्मरण रखें कि यह काल्पनिक है और पर्दा खाली है। और आप चकित हो जाएंगे--केवल कुछ सेकेंड के लिए आप स्मरण रख पाते हैं और फिर भूल जाते हैं, फिर यह यथार्थ लगने लगता है। जब भी आप स्वयं को भूल जाते हैं, सपना असली हो जाता है। जब भी आप स्वयं को स्मरण रखते हैं--कि मैं असली हूं, आप अपने को झकझोरते हैं--तब पर्दा पर्दा रह जाता है और जो भी उस पर चल रहा है सब काल्पनिक हो जाता है।" ********* पर्दे पर जो फिल्म चल रही है और हमारे जीवन में जो हो रहा है उसमें कोई भेद नहीं है।जीवन में जो हो रहा है वह ईश्वर की माया का खड़ा किया हुआ है।सिनेमा के पर्दे पर जो हो रहा है वह आदमी का खड़ा किया हुआ है।एक समानता है यह कि दोनों में हम अपने को भूल जाते हैं।जो हो रहा है वह सच लगने लगता है। इसलिए यह ध्यान विधि है कि सब काल्पनिक है।सिनेमा से शुरू करना ठीक है।वहां हमें पता होता है कि पर्दे पर कल्पित कहानी बताई जा रही है।हम उसे सच मान लेते हैं, उसमें खो जाते हैं वह अलग बात है। क्या हम तीन घंटे की फिल्म में यह याद रख सकते हैं कि यह काल्पनिक है? सचमुच काल्पनिक है इस पर संदेह होने का सवाल ही नहीं उठता। अच्छी तरह से पता होता है। फिर क्या बात है?भूल कहां हो रही है?हम खो क्यों जाते हैं? हम चित्त में होते हैं और यह चित्त ही है जो खोता है या होश में आता है।अगर हम यह याद रख सकें कि पर्दे पर जो भी दिखाया जा रहा है वह काल्पनिक है तो हम होश में रह सकते हैं।अपने आपको अनुभव कर सकते हैं जो द्रष्टा है। दृश्य में खोने का मतलब है द्रष्टा से ध्यान हट जाना। द्रष्टा का ध्यान रहने का अर्थ है दृश्य में न खोना। कुल कहानी इतनी ही है सांसारिक तो सांसारिक, आध्यात्मिक तो आध्यात्मिक। वह इतनी गंभीर क्यों बनी हुई है? एक ही कारण है द्रष्टा का ध्यान अपने होने से,अपने होने के अनुभव से हट गया है। दृश्य में खो गया है। यह काल्पनिक है यह ध्यान रहे तो चित्त दृश्य को छोड़कर स्वयं में आ जायेगा। 'पर' थी खस।'स्व' मां वस। आटलुं बस। चित्त का दृश्य में रहना 'पर' में रहना है।चित्त का द्रष्टा में रहना 'स्व' में रहना है। एक अच्छा संदेश मिला था- 'जब आप सहजता से, स्वाभाविक रुप से आप स्वयं होने में संतुष्ट हैं और न किसी से प्रतिस्पर्धा करते हैं,न तुलना सभी लोग आपका बड़ा सम्मान करेंगे,आदर करेंगे।' यह आत्मस्थिति का सम्मान है। इसमें आत्मसंतोष का अनुभव है तथा प्रतिस्पर्धा एवं तुलना का पूर्ण अभाव है। सम्मान क्यों नहीं होगा? असम्मान की स्थिति तब आती है जब आत्मा की जगह अहंकार में स्थिति होती है। अहंकार 'पर' है तथा 'पर' में ही निवास करता है।अहंकार 'स्व' में निवास नहीं कर सकता।'स्व' में रहने का अर्थ है अहंकार का अंत। दोनों साथ नहीं रह सकते।अहंकार हैं तो स्व नहीं।स्व है तो अहंकार नहीं।दो स्व भी नहीं हैं। एक ही है।स्वयं में रहने के लिए कहा जाता है वह पर्याप्त है। आदमी स्वयं में रहना भी चाहता है और हिचकता भी है क्योंकि उसे लगता है फिर दूसरों के साथ व्यावहारिक संतुलन बनाये रखने के लिए नीति बनानी पड़ेगी वर्ना वे नाराज हो सकते हैं। महापुरुष इसकी परवाह नहीं करते।वे सचमुच स्वयं में रहते हैं। स्वयं एक ही है, सर्वव्यापी है इसलिए दूसरेपन का आभास नहीं होता।अब अगर कोई पराया है ही नहीं सब अपना ही अपना है जैसे अपने हाथपांव,आंखकान तो किसकी नाराजगी की फ़िक्र है? क्या अपने हाथपांव नाराज होंगे? कदाचित हों भी तब भी बुरा नहीं लगेगा।स्वयं ही तो है ऐसा अनुभव बना रहता है। अब अगर कोई हाथपांव को 'पर' मानकर उसमें खो जाय तो क्या होगा? यह कहना पड़ेगा कि यह सब काल्पनिक है।स्वयं के होने के अनुभव में अलग कुछ रहता नहीं। दृश्य, द्रष्टा से पृथकता खो बैठता है। दृश्य, द्रष्टा से भिन्न है ही नहीं। 'Apart from the seer,there is no seen.' स्वयं को अनुभव करने पर कुछ भी पराया नहीं लगता।स्वयं ही अनुभव हो रहा होता है।स्वानुभव से ध्यान हटाने पर विशाल दृश्य जगत खड़ा हो जाता है। उसमें फिर विविधता है। उसमें डूब जाने की पूरी संभावना है। अतः सिनेमा से शुरू करें।बारबार खोयेंगे, बारंबार स्मरण करना होगा यह काल्पनिक है। इससे होश का अभ्यास होता है। यद्यपि होश अभ्यास की चीज नहीं है मगर बेहोशी में से बाहर आना है तो और क्या उपाय है? अगर सिनेमा में घंटे,दो घंटे,तीन घंटे याद रह सके कि यह काल्पनिक है तो जो होश की स्थिति बनती है उससे इस जगत की मायिकता जानने में मदद मिल सकती है। क्यों कि वाकई में सब माया का ही खेल है।माया की कहानी चल रही है।उसे सच मानकर उसमें खोया जा रहा है, अस्तित्व बोध को भुलाया जा रहा है। अस्तित्व बोध होता रहे तथा स्मरण रहे कि पूरा संसार मायामय है, मन का खेल है,काल्पनिक है तो इसके सारे झूठे सुखदुख के बंधन कट जाते हैं।होश चाहिए। यही भजन है।
'उमा कहउं मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना।।'
तब महान भयजनक घटना तथा अपार सुखजनक घटना में कोई भेद न होगा। दोनों समान रुप से काल्पनिक होंगे।यह आत्मस्थिति होगी।यह समत्वयोग में स्थापित होना होगा।
एक तरफ मनरुपी माया है,दूसरी तरफ हृदय रुपी अनुभव है,बीच में चित्त खड़ा है।चित्त,मन की कथा में डूबा है तो बेहोश।चित्त,हृदय के अनुभव में स्थित है तो होश।चित्त,मन में है तो संशय,भय, अविश्वास।चित्त हृदय में हैं तो अभय,सहज सुखरुप आत्मविश्वास।इतना ही जानना है।
सारांश:
आप स्वयं को मन में मन की सतत चलनेवाली भूत भविष्य संबंधी फिल्म में मत खोईये।आप मन की कल्पना मात्र नहीं हैं।आप वही हैं जो परम सत्य है-परम जाग्रति।

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