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KNOWLEDGE OF PHILOSOPHY

 KNOWLEDGE OF PHILOSOPHY

Q-1 फिलासफी सब्जेक्ट में क्या क्या आता है?

फिलॉसफी लॉजिक, एथिक्स, सौंदर्यशास्त्र, तत्व और ज्ञान मीमांसा का मिला-जुला रूप है। वर्तमान में यह विषय अपनी पारंपरिक शाखाओं से कहीं आगे बढ़कर क्वांटम फिजिक्स फिलॉसफी, एनालिटिकल फिलॉसफी, कलाशास्त्र दर्शन, बायोमेडिकल एथिक्स, बिजनेस एथिक्स, इनवायार्नमेंटल एथिक्स जैसी नई शाखाओं में विकसित हो रहा है।

Q-2  दर्शनशास्त्र की उत्पत्ति कैसे हुई?

उसकी उत्पत्ति दास-स्वामी समाज में एक ऐसे विज्ञान के रूप में हुई जिसने वस्तुगत जगत तथा स्वयं अपने विषय में मनुष्य के ज्ञान के सकल योग को ऐक्यबद्ध किया था। यह मानव इतिहास के आरम्भिक सोपानों में ज्ञान के विकास के निम्न स्तर के कारण सर्वथा स्वाभाविक था।

Q-3  दर्शन के मुख्य तीन अंग क्या है?

दर्शन योजना अथवा विचार पक्ष है तथा शिक्षा, व्यवहार अथवा प्रयोगात्मक पक्ष है। दूसरे शब्दों में, दर्शन जीवन के लक्ष्य को निर्धारित करता है तथा विचार अथवा विश्लेषण करके सिधान्तों का निर्माण करता है।

Q-4  6 दर्शन कौन कौन से हैं?

वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन (छः दर्शन) अधिक प्रसिद्ध और प्राचीन हैं। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन अधिक प्रसिद्ध हैं। ये सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त के नाम से विदित है। इनके प्रणेता कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनि और बादरायण थे।

छह दर्शन

 भोक्तृत्व रहित स्वरूप के ज्ञान से पुरुष मुक्त होता है।

योग दर्शन के सिद्धांत सांख्य के समान हैं। योगसूत्र पर रचित भाष्य और टीकाएँ योगदर्शन की विस्तृत परंपरा का आधार हैं। योगदर्शन का मुख्य लक्ष्य समाधि के मार्ग को प्रशस्त करना है। समाधि में चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है। अभ्यास, वैराग्य और ध्यान योग के मुख्य साधन हैं। ईश्वर को भी ध्यान का लक्ष्य बनाया जा सकता है इतना ही योगदर्शन में ईश्वर का महत्व है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के आठ अंगों से युक्त अष्टांगयोग योग का सर्वजन सुलभ मार्ग है।

न्याय एक प्रकार का भारतीय तर्कशास्त्र है। न्यायसूत्र पर अनेक प्रसिद्ध टीकाएँ हैं। गंगेश उपाध्याय (12वीं शताब्दी) की "तत्वचिंतामणि" से नवद्वीप में नव्य न्याय की परम्परा का आरम्भ हुआ। न्यायदर्शन के पहले ही सूत्र में 16 पदार्थों का उल्लेख है। इनके द्वारा तत्वज्ञान होता है जो निःश्रेयस अथवा मोक्ष का साधन है। प्रमाणों को विशेष विस्तार न्यायदर्शन में मिलता है। ईश्वरभक्ति को न्याय में मोक्ष का साधन माना गया है।

वैशेषिक दर्शन एक प्रकार से न्याय का समान तंत्र है। न्याय और वैशेषिक दोनों प्रमाणप्रधान दर्शन हैं। 'विशेष' अथवा 'परमाणु' उसका मुख्य विषय है। परमाणु, सृष्टि का मूल उपादान कारण है। न्याय-वैशेषिक-दशर्न ईश्वर को सृष्टि का निमित्त कारण मानते हैं। वैशेषिक दर्शन में सम्पूर्ण सत्ता को सात पदार्थों में विभाजित किया गया है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव। न्याय के 16 पदार्थों की अपेक्षा अधिक संगत होने के कारण यही विभाजन आगे चलकर अधिक मान्य हुआ तथा न्याय-वैशेषिक-दर्शन की उस संयुक्त परंपरा का आधार बना, जिसका प्रतिनिधित्व न्यायमुक्तावली आदि अर्वाचीन ग्रंथ करते हैं।

षड्दर्शनों में अंतिम दो दर्शनों को "मीमांसा" कहा जाता है। ये पूर्वमींमांसा और उत्तरमीमांसा कहलाती हैं। अन्य दर्शनों की अपेक्षा इनका वेदों से अधिक घनिष्ठ संबंध है। एक प्रकार से ये वैदिक दर्शन की व्याख्याएँ हैं। पूर्वमीमांसा, मंत्रसंहिता और ब्राह्मणों के कर्मकांड की व्याख्या है। उत्तरमीमांसा उपनिषदों के अध्यात्मदर्शन का तार्किक विवेचन है। वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को "वेदान्त" कहते हैं। उत्तर मीमांसा का नाम भी "वेदान्त" है। इन दोनों मीमांसाओं के सिद्धांतों का आधार वेदों में है, किंतु व्यवस्थित दर्शनों के रूप में इनका आरंभ अन्य दर्शनों के साथ साथ ही (प्रथम शताब्दी में) हुआ। इसीलिए इनकी गणना षड्दर्शनों में की जाती है। दोनों मीमांसाओं के इतिहास के तीन चरण हैं। तीनों ही चरणों में इनका विकास एक ही पूर्वोत्तर क्रम में हुआ। वैदिक युग में वेदों के पूर्वभाग (संहिता, ब्राह्मण) में कर्मकांड का विधान हुआ। वेदों के उत्तर भाग (उपनिषदों) में अध्यात्म की प्रतिष्ठा हुई। ईसा की आरंभिक शताब्दी में जैमिनि और बादरायण के "मीमांसासूत्र" तथा "ब्रह्मसूत्र" भी संभवत: इसी क्रम में रचे गए। ईसा पूर्व की छठी शताब्दी में कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य ने इसी पूर्वापर क्रम में पूर्व और उत्तरमीमांसाओं का उद्धार एवं प्रचार किया।

अनात्मवादी होने के कारण बौद्धदर्शन का आत्मवादी वैदिक दर्शन से विरोध है। वैदिक धर्म के विरुद्ध क्रांति के रूप में ही ईसवी पूर्व छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का उदय हुआ था। अनेक कारणों से ईसा की छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का ह्रास होने लगा। कुमारिल और शंकराचार्य ने वैदिक धर्म के दोनों पक्षों की प्रतिष्ठा की। इनके बाद पार्थसारथि मिश्र (14वीं शताब्दी) तथा माधवचार्य (14वीं शताब्दी) ने पूर्वमीमांसा दर्शन का विस्तार किया। माधवाचार्य विजयनगर के राजा वुक्का के मंत्री थे। बाद में सन्यास लेकर विद्यारण्य के नाम से शृंगेरी पीठ के शंकराचार्य पद पर आसीन हुए और "पंचदशी" नामक प्रद्धि वेदांत ग्रंथ की रचना की। वेदांतमत की प्रतिष्ठा के लिए शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों पर जिन चार पीठों की स्थापना की उनमें शृंगेरी पीठ दक्षिण में नीलगिरि पर्वत पर स्थित है। अन्य तीन पीठ पुरी, बदरिकाश्रम और द्वारका में हैं। शंकराचार्य ने उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र और गीता पर भाष्यों की रचना की। शंकराचार्य के बाद वाचस्पति मिश्र (9वीं शताब्दी), श्री हर्ष (12वं शताब्दी) आदि आचार्यों ने वेदांत परंपरा का विस्तार किया।

पूर्वमीमांसा का मुख्य लक्ष्य वैदिक कर्मकांड की व्यवस्था करना है। इसके अनुसार वेदमंत्रों का मुख्य अर्थ विधि अथवा कर्म के आदेश में है। जिन मंत्रों में विधिवाचक क्रिया नहीं है वे "अर्थवाद" हैं तथा देवताओं आदि की प्ररोचना करते हैं। यदि यज्ञादि कर्म से एक दिव्य शक्ति उत्पन्न होती है जिसे "अपूर्व" कहते हैं। यही अपूर्व कर्मफल का नियामक है। पूर्वमीमांसा में ईश्वर मान्य नहीं है। वेद नित्य और अपौरुषेय हैं। नित्य शब्द का कल्प कल्प में यथापूर्व स्फोट होता है और अपूर्व की शक्ति से यथापूर्व सृष्टि की उत्पत्ति होती है। पूर्वमीमांसा की आत्मा वैशेषिक के समान चेतनातीत है। न्याय दर्शन के चर प्रमाणों के अतिरिक्त अर्थापत्ति और अनुपलब्धि दो प्रमाण और मीमांसा दर्शन में माने जाते हैं।

उत्तर मीमांसा वेदों के उत्तर भाग (उपनिषदों) पर आश्रित है। उपनिषद् वेदों के अंतिम भाग हैं, अतः वे 'वेदान्त' कहलाते हैं। उत्तर मीमांसा का अधिक प्रसिद्ध नाम "वेदांत" ही है। ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों की व्याख्याओं के द्वारा वेदांत का विस्तार हुआ है। अनेक आचार्यों ने भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से ब्रह्मसूत्रों और उपनिषदों की व्याख्या की है। आचार्यों के विभिन्न मतों के आधार पर वेदांत के अनेक संप्रदाय बन गए। ये अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं। वेदांत के ये संप्रदाय सांख्य आदि की भाँति दार्शनिक नहीं हैं; इन सभी संप्रदायों के धार्मिक पीठ देश के विभिन्न स्थानों में प्रतिष्ठित हैं। इन पीठों की आचार्य-परंपरा आज तक अक्षुण्ण चली आ रही है।

गीता का कर्मवाद

गीतादर्शन भी वैदिक षडदर्शनों के समकालीन है। गीता का कर्मयोग उपनिषदों के ब्रह्मवाद के बाद एक महत्वपूर्ण मौलिक दर्शन है। सभी वैदिक दर्शनों ने कर्मयोग का महत्व स्वीकार किया है। व्यावहारिक होने के कारण उसे प्रतिनिधि भारतीय जीवनदर्शन कहा जा सकता है। गीता के कर्मयोग में अध्यात्म और जीवन का अद्भुद समन्वय हुआ है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह वैदिक कर्मकांड और उपनिषदों के ब्रह्मवाद का समन्वय है। अध्यात्म और कर्म का यह समन्वय अत्यंत महत्वपूर्ण है। उपनिषदों के वेदांत तथा बौद्ध और जैन धर्म के सन्यासवाद के प्रभाव स भारतीय जनता में विरक्ति और निवृत्ति का प्रभाव इतना बढ़ रहा था कि समाज के लिए घातक बन जाता। ऐसी स्थिति में गीता ने कर्मयोग का संदेश देकर देश को एक संजीवन मंत्र प्रदान किया। अध्यात्म को स्वीकार कर गीता ने सन्यास को एक नई परिभाषा दी। "सन्यास" का सामान्य अर्थ "त्याग" है। किंतु इस त्याग में प्राय: भ्रांति हो जाती है। भोजन, शयन आदि प्राकृतिक कर्मों का त्याग किया जा सकता है। काम्य कर्मों का भी त्याग संभव है। यही गीता का सन्यास है। फल की कामना त्याग कर लोक संभव है। यही गीता का सन्यास है। फल की कामना त्याग कर लोक संग्रह के लिए निष्काम कर्म करना जीवन का आदर्श है। यही मोक्ष का साधन है। गीता का यह निष्काम कर्मयोग अधिकांश भारतीय दर्शनों ने अपनाया है। ज्ञानयोग उसका आध्यात्मिक आधार है और भक्तियोग उसका भावात्मक दर्शन है।

वेदान्त के सम्प्रदाय

वेदांत के इन अनेक संप्रदायों में शंकराचार्य का अद्वैतमत सबसे प्राचीन है। यह संभवत: सबसे अधिक प्रतिष्ठित भी है। शंकराचार्य का अद्वैतवाद उपनिषदों पर आश्रित है। उनके अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है। जगत् का विक्षेप और जीव के ब्रह्मभाव का आवरण करती है। अज्ञान का निवारण होने पर जीव को अपने ब्रह्मभाव का साक्षात्कार होता है। यही मोक्ष है। ब्रह्म सच्चिदानंद है। ब्रह्म की सत्ता और चेतना तथा उसका आनंद अनंत है। जागृत, स्वप्न और सुषुप्त की अवस्थाओं से परे तथा बाह्य और आंतरिक विषयों से अतीत अनुभव में ब्रह्म का प्रकाश होता है। विषयातीत होने के कारण ब्रह्म अनिर्वचनीय है। संख्यातीत होने के कारण उसे "अद्वैत" कहा जाता है। त्याग और प्रेम के व्यवहारों में यह अद्वैत भाव विभासित होता है। समाधि में इसका आंतरिक साक्षात्कार होता है। अद्वैत भाव को सिद्ध करने के लिए ब्रह्म को जगत् का कारण माना गया है। ब्रह्म को जगत् का उपादान कारण मानकर दोनों का अद्वैत सिद्ध हो जाता है। उपादान के परिणाम की आशंका को विवर्तवाद के द्वारा दूर किया गया है। विवर्तकारण अविकार्य होता है। उसका कार्य मिथ्या होता है जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम। रज्जु सर्प और स्वप्न प्रातिभासिक सत्य हैं। जगत् व्यावहारिक सत्य है। मोक्ष पर्यंत वह मान्य है। ब्रह्म ही पारमार्थिक सत्य है जो मोक्ष में शेष रह जाता है। माया से युक्त ब्रह्म "ईश्वर" कहलाता है। वह सृष्टि का कर्ता है किंतु वह पारमार्थिक सत्य नहीं है। ब्रह्मानुभव का साधन ज्ञान है। कर्म के साध्य शाश्वत नहीं होते। "ब्रह्म" कर्म के द्वारा साध्य नहीं है। कर्म और भक्ति मोक्ष के सहकारी कारण हैं। श्रवण, मनन और निदिध्यासन मोक्षसाधना के तीन चरण हैं। मोक्ष में आत्मा समस्त बंधनों से मुक्त हो जाती है और अनंत आनंद से आप्लावित रहती है। यह मोक्ष जीवनकाल में प्राप्य है तथा जीवन के व्यवहार से इसकी पूर्ण संगति है।

शंकराचार्य के लगभग 1500 वर्ष बाद 11वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य ने ब्रह्मसूत्रों की नवीन व्याख्या के आधार पर विशिष्टाद्वैत मत की स्थापना की। रामानुजकृत "श्रीभाष्य" के आधार पर यह 'श्रीसंप्रदाय' कहलाता है। रामानुज शंकर के मायावाद को नहीं मानते। उनके अनुसार जीव, जगत् और ब्रह्म तीनों पारमार्थिक सत्य हैं। जगत् ब्रह्म का विवर्त नहीं वरन् ब्रह्म की वास्तविक रचना है। ब्रह्म और ईश्वर एक दूसरे के पर्याय हैं। जीव ब्रह्म का अंश है। मोक्ष में जगत् का विलय नहीं होता और जीव का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। ब्रह्म निर्विशेष और निर्गुण नहीं वरन् सविशेष्य और सगुण है। ब्रह्म ही स्वतंत्र सत्ता है। जीव और जगत् उसके अपृथक्सिद्ध विशेषण हैं। ब्रह्म से पृथक् उनका अस्तित्व संभव नहीं है। अत: रामानुज का मत भी अद्वैत ही है। जीव और जगत् के विशेषणों से युक्त ब्रह्म का इनके सथ विशिष्ट अद्वैतभाव है। ब्रह्म इनका अंतर्यामी स्वामी है। रामानुज के मत में भक्ति मोक्ष का मुख्य साधन है। भगवान के गुणों का ज्ञान भक्ति का प्रेरक है। साधारण जन और शूद्रों के लिए प्रपत्ति अर्थात् शरणागति सर्वोत्तम मार्ग हैं।

रामानुज के कुछ वर्ष बाद 11वीं शताब्दी में ही निंबार्काचार्य ने द्वैताद्वैत मत की प्रतिष्ठा की। ब्रह्मसूत्रों पर "वेदांत-पारिजात-सौरभ" नाम से उनका भाष्य इस मत का आधार है। रामानुज के समान निंबार्क भी जीव और जगत् को सत्य तथा ब्रह्म का आश्रित मानते हैं। रामानुज के मत में अद्वैत प्रधान है। निंबार्क मत में द्वैत का अनुरोध अधिक है। रामानुज के अनुसार जीव और ब्रह्म में स्वरूपगत साम्य है, उनकी शक्ति में भेद हैं। निंबार्क के मत में उनमें स्वरूपगत भेद है। निंबार्क के अद्वैत का आधार जीव की ब्रह्म पर निर्भरता है। निंबार्क का ब्रह्म सगुण ईश्वर है। कृष्ण के रूप में उसकी भक्ति ही मोक्ष का परम मार्ग है। यह भक्ति भगवान के अनुग्रह से प्राप्त होती है। भक्ति से भगवान का साक्षात्कार होता है। यही मोक्ष है। रामानुज और निंबार्क दोनो के मत में विदेह मुक्ति ही मान्य है।

निंबार्क के बाद 13वीं शताब्दी में मध्वाचार्य ने द्वैत मत का प्रतिपादन किया। वे पूर्णप्रज्ञ तथा आनंदतीर्थ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने शंकराचार्य के अद्वैत और निंबार्क के द्वैताद्वैत का खंडन करके द्वैतवाद की स्थापना की है। उनके अनुसार भेद और अभेद दोनों की एकत्र स्थति संभव नहीं है। शंकराचार्य का मायावाद भी उन्हें मान्य नहीं है। जगत् मिथ्या नहीं यथार्थ है। सत् और असत् से भिन्न माया की तीसरी अनिर्वचनीय कोटि संभव नहीं है। ईश्वर, जीव और जगत् तीनों एक दूसरे से भिन्न हैं। भेद के पाँच प्रकार हैं। ईश्वरजीव, ईश्वर-जगत्, जीव-जगत्, जीव-जीव और जड़ पदार्थों में परस्पर भेद है। ईश्वर जगत् का उपादान कारण नहीं, निमित्त कारण है। उपादान करण प्रकृति है। ईश्वर उसका नियामक है। ईश्वर की भक्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है। मुक्त जीवों में परस्पर भेद रहता है। वे ईश्वर से भिन्न रहकर अपनी सामथ्र्य के अनुसार ईश्वर की विभूति में भाग लेते हैं।

15वीं शताब्दी में वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैत मत का प्रचार किया। इस मत का आधार "ब्रह्मसूत्रों" पर लिखित वल्लभाचार्य का "अणुभाष्य" है। वे माया से अलिप्त शुद्ध ब्रह्म का अद्वैत भाव मानते हैं। यह ब्रह्म निर्गुण नहीं, सगुण है तथा माया के संबंध से रहित है। ब्रह्म अपनी अनंत शक्ति से जगतृ के रूप में व्यक्त होता है। चित् और आनंद का तिरोधान होने के कारण जगत् में केवल सत् रूप से ब्रह्म की अभिव्यक्ति होती है। जीव और ब्रह्म स्वरूप से एक हैं। अग्नि के स्फुर्लिगों की भांति जीव ब्रह्म का अंश है, विशेषण नहीं। इस प्रकार सर्वत्र अद्वैत है, कहीं भी द्वैत नहीं। मर्यादा और पुष्टि दो प्रकार की भक्ति मोक्ष का साधन हैं।

16वीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु ने अचिंत्य भेदाभेद का प्रवर्तन किया। उनके शिष्य रूप गोस्वामी ने गौडीय वैष्णव संप्रदाय का प्रतिष्ठापन किया। इनके अनुसार भगवान की शक्ति अचिंत्य है। वह विरोधी गुणों का समन्वय कर सकती है। भेदाभेद का चिंतन न करके मोक्ष की साधना करना ही जीवन का धर्म है। मोक्ष का अर्थ भगवान की प्रीति का निरंतर अनुभव है।

इस प्रकार वैदिक युग के उत्तरकाल में उपनिषदों में जिस वेदांत का उदय हुआ उसका नवीन उत्थान सातवीं शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी तक अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्धाद्वैत आदि संप्रदायों के रूप में हुआ। उपनिषदों का वेदांत पश्चिमी और उत्तरी भारत की देन है। अद्वैत आदि संप्रदायों का उदय दक्षिण से हुआ। इनके प्रवर्तक दक्षिण देशों के निवासी थे। चैतन्य का मत बंगाल से उदित हुआ। किंतु इन सभी संप्रदायों ने वृदांवन आदि उत्तरी स्थानों में अपने पीठ बनाए। शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों पर पीठ स्थापित किए। उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम सभी प्रदेशों के लोग इन संप्रदायों में सम्मिलित हुए। सिद्धांत में भिन्न होते हुए भी वेदांत के ये विभिन्न संप्रदाय भारतवर्ष की आंतरिक एकता के सूत्र बने।

शैव तथा शाक्त दर्शन

 

वैदिक और अवैदिक दर्शनों के अतिरिक्त भारतीय दर्शन परंपरा में एक तीसरी धारा शैव तथा शाक्त संप्रदायों की प्रवाहित होती रही है। कुछ रहस्यमय साधना के रूप में होने के कारण यह वैदिक और अवैदिक धाराओं के संगम में कुछ सरस्वती के समान गुप्त रही है। किंतु प्रत्यक्ष उपासना के रूप में भी शिव की मान्यता बहुत है। प्राचीन ऐतिहासिक खोजों से शिव की प्राचीनता प्रमाणित होती है। गाँव गाँव में शिव के मंदिर हैं। प्रति सप्ताह और प्रति पक्ष में शिव का व्रत होता है। महादेव पार्वती का दिव्य दांपत्य भारतीय परिवारों में आदर्श के रूप से पूजित होता है। ऋग्वेद और यजुर्वेद के रुद्र के रूप में शिव का वर्णन है। किंतु प्राय: शिव को अवैदिक लोकदेवता माना जाता है। दक्ष के यज्ञघ्वंस के प्रसंग के द्वारा शिव की अवैदिकता का समर्थन किया जाता है पौराणिक युग में भी त्रिदेवों की तुलना के प्रसंग में विरोध के आभास मिलते हैं। किंतु आगे चलकर शिव एक अत्यंत लोकप्रिय देवता बन गए।

शैव संप्रदाय प्राय: गुप्त तंत्रों के रूप में रहे हैं। उनका बहुत कम साहित्य प्रकाशित है। प्रकाशित साहित्य भी प्रतीकात्मक होने के कारण दुरूह है। शैव परंपरा के अनेक संप्रदाय हैं। इनमें शैवपाशुपतवीरशैव, कालामुख, कापालिक, काश्मीर शैव मत तथा दक्षिणी मत अधिक प्रसिद्ध हैं। इन्हें शैव परंपरा के षड्दर्शन कह सकते हैं। शैव सिद्धात का प्रचार दक्षिण में तमिल देश में है। इसका आधार आगम ग्रंथों में है। 14वीं शताब्दी में नीलकंठ ने "ब्रह्मसूत्रों" पर शैवभाष्य की रचना कर वेदांत परंपरा के साथ शैवमत का समन्वय किया। पाशुपत मत, 'नकुलीश पाशुपत' के नाम से प्रसिद्ध है। पाशुपत सूत्र इस संप्रदाय का मूल ग्रंथ है। कालामुख और कापालिक संप्रदाय कुछ भयंकर और रहस्यमय रहे हैं। काश्मीर शैव मत अद्वैत वेदांत के समान है। तांत्रिक होते हुए भी इनका दार्शनिक साहित्य विपुल है। इसकी स्पंद और प्रत्यभिज्ञा दो शाखाएँ हैं। एक का आधार वसुगुप्त की स्पंदकारिका और दूसरी का आधार उनके शिष्य सोमानंद (9वीं शती) का "प्रत्यभिज्ञाशास्त्र" है। जीव और परमेश्वर का अद्वैत दोनों शाखाओं में मान्य है। परमेश्वर "शिव" वेदांत के ब्रह्म के ही समान हैं। वीरशैव मत दक्षिण देशों से प्रचलित है। इनके अनुयायी शिवलिंग धारण करते हैं। अत: इन्हें "लिंगायत" भी कहते हैं। 12वीं शताब्दी में वसव ने इस मत का प्रचार किया। वीरशैव मत एक प्रकार का विशिष्टाद्वैत है। शक्ति विशिष्ट विश्व को परम तत्व मानने के कारण इसे शक्ति विशिष्टाद्वैत कह सकते हैं। उत्तर और दक्षिण में प्रचलित शैव संप्रदाय भी उत्तर वेदांत संप्रदायों की भाँति भारत की धार्मिक एकता के सूत्र हैं। कैलास से रामेश्वरम् तक पूजित शिव भारतीय एकता के मंगल देवता है। दोनों की यात्राओं के द्वारा भारतीय एकता का व्यावहारिक अनुष्ठान होता है।

शक्तिपूजा का स्रोत संभवत: प्राचीन भारत के मातृतंत्र में है। भारतीय परिवारों में देवी की महिमा बहुत है। स्त्रियों के नाम में प्राय: उत्तरपद के रूप में "देवी" शब्द का प्रयोग होता है। शक्ति के अनेक रूप हैं। लक्ष्मीसरस्वतीपार्वतीकाली आदि के रूप में देवी की उपासना होती है। "शक्ति" इच्छारूप है। शिवसूत्र में इच्छाशक्ति को उमा कुमारी का रूप दिया है (इच्छा शक्तिः उमा कुमारी)। पर तत्व के चिन्मय रूप में इच्छाशक्ति का समन्वय शक्ति दर्शन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है।

 

परिचय

योगदर्शन में पुरूष तत्व केन्द्रीय विषय के रूप में प्रस्तुत हुआ है। यद्यपि पुरूष और प्रकृति दोनों की स्वतन्त्र सत्ता मानी गयी है परन्तु तात्विक रूप में पुरूष की सत्ता ही सर्वोच्च है। पुरूष के दो भेद कहे गये हैं । पुरूष को चैतन्य एवं अपरिणामी कहा गया है, किन्तु अविद्या के कारण पुरूष जड़ एवं परिणाम चित्त में स्वयं को आरोपित कर लेता है। पुरूष और चित्त के संयुक्त हो जाने पर विवेक जाता रहता है और पुरूष स्वयं को चित्त रूप में अनुभव करने लगता है। यह अज्ञान ही पुरूष के समस्त दुःखों, क्लेशों का कारण हैं। योग दर्शन का उद्देश्य पुरूष को इस दुःख से, अज्ञान से, मुक्त कराना है। इसी तथ्य को सैद्धान्तिक रूप से योग दर्शन में हेय, हेय-हेतु, हान और हानोपाय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन चार क्रमों में पुरूष दुःखों से मुक्ति पाता है, इसलिये योग में इसे 'चतुर्व्यूहवाद' कहा गया है एवं इस चतुर्व्यूह से मुक्त होना ही योग का परम उद्देश्य है। चतुर्व्यूहवाद की विवेचना में ही योग दर्शन में पुरूष, पुरूषार्थ और पुरूषार्थशून्यता का दर्शन प्रकट होता है। पुरूष अविद्याग्रस्त होने पर संसार-चक्र में पड़ता है और पुरूषार्थशून्यता की अवस्था को प्राप्त करता है। पुरूष का परम लक्ष्य कैवल्य की प्राप्ति है। योग में पुरूष को आत्मा का पर्याय माना गया है। अतः आत्मा, जो कि संख्या में असंख्य है, उसकी कैवल्य प्राप्ति तभी हो सकती है जब चतुर्व्यूह का पुरूषार्थ साधन कर दुःख के त्रिविध रूपों का सामाधान कर लिया जाय। दुःख के तीन रूप है - आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। पुरूषार्थशून्यता इन त्रितापों से ऊपर की अवस्था है। पुरूषार्थशून्यता के पश्चात् ही पुरूष की अपने स्वरूप की स्थिति होती है। योगदर्शन में इसे ही कैवल्य अथवा मोक्ष कहा गया है।

पतंजलि को कपिल द्वारा बताया गया सांख्यदर्शन ही अभिमत है। थोड़े में, इस दर्शन के अनुसार इस जगत्‌ में असंख्य पुरुष हैं और एक प्रधान या मूल प्रकृति। पुरुष चित्‌ है, प्रधान अचित्‌। पुरुष नित्य है और अपरिवर्तनशील, प्रधान भी नित्य है परन्तु परिवर्तनशील। दोनों एक दूसरे से सदा पृथक हैं, परन्तु एक प्रकार से एक का दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। पुरुष के सान्निध्य से प्रकृति में परिवर्तन होने लगते हैं। वह क्षुब्ध हो उठती है। पहले उसमें महत्‌ या बुद्धि की उत्पत्ति होती है, फिर अहंकार की, फिर मन की। अहंकार से ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों तथा पाँच तन्मात्राओं अर्थात्‌ शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध की, अन्त में इन पाँचों से आकाश, वायु, तेज, अप और क्षिति नाम के महाभूतों की। इन सबके संयोग वियोग से इस विश्व का खेल हो रहा है। संक्षेप में, यही सृष्टि का क्रम है। प्रकृति में परिवर्तन भले ही हो परन्तु पुरुष ज्यों का त्यों रहता है। फिर भी एक बात होती है। जैसे श्वेत स्फटिक के सामने रंग बिरंगे फूलों को लाने से उसपर उनका रंगीन प्रतिबिम्ब पड़ता है, इसी प्रकार पुरुष पर प्राकृतिक विकृतियों के प्रतिबिम्ब पड़ते हैं। क्रमश: वह बुद्धि से लेकर क्षिति तक से रंजित प्रतीत होता है, अपने को प्रकृति के इन विकारों से संबद्ध मानने लगता है। आज अपने को धनी, निर्धन, बलवान्‌ दुर्बल, कुटुंबी, सुखी, दु:खी, आदि मान रहा है। अपने शुद्ध रूप से दूर जा पड़ा है। यह उसका भ्रम, अविद्या है। प्रधान से बने हुए इन पदार्थो ने उसके रूप को ढँक रखा है, उसके ऊपर कई तह खोल पड़ गई है। यदि वह इन खोलों, इन आवरणों को दूर फेंक दे तो उसका छुटकारा हो जायगा। जिस क्रम से बँधा है, उसके उलटे क्रम से बन्धन टूटेंगे। पहले महाभूतों से ऊपर उठना होगा। अन्त में प्रधान की ओर से मुँह फेरना होगा। यह बन्धन वास्तविक नहीं है, परन्तु बहुत ही दृढ़ प्रतीत होते हैं। जिस उपयोग से बंधनों को तोड़कर पुरुष अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो सके उस उपाय का नाम योग है। सांख्य के आचार्यो का कहना है: यद्वा तद्वा तदुच्छिति: परमपुरुषार्थः - जैसे भी हो सके पुरुष और प्रधान के इस कृत्रिम संयोग का उच्छेद करना परम पुरुषार्थ हैं।

योग का यही दार्शनिक धरातल है: अविद्या के दूर होने पर जो अवस्था होती है उसका वर्णन विभिन्न आचार्यों और विचारकों के विभिन्न ढँग से किया है। अपने-अपने विचार के अनुसार उन्होंने उसको पृथक नाम भी दिए हैं। कोई उसे कैवल्य कहता है, कोई मोक्ष, कोई निर्वाण। ऊपर पहुँचकर जिसको जैसा अनुभव हो वह उसे उस प्रकार कहे। वस्तुत: वह अवस्था ऐसी हैयतो वाचो निवर्तते अप्राप्य मनसा सह - जहाँ मन ओर वाणी की पहुँच नहीं है। थोड़े से शब्दों में एक और बात का भी चर्चा कर देना आवश्यक है। असंख्य पुरुषों के साथ पतंजलि ने 'पुरुष विशेष' नाम से ईश्वर की सत्ता को भी माना है। सांख्य के आचार्य ऐसा नहीं मानते। वस्तुत: मानने की आवश्यकता भी नहीं है। यदि योगदर्शन में से वह थोड़े से सूत्र निकाल भी लें तो कोई अंतर नहीं पड़ता। योग की साधना की दृष्टि से ईश्वर को मानने, न मानने का विशेष महत्व नहीं है। ईश्वर की सत्ता को मानने वाले और न मानने वाले, दोनों योग में समान रूप से अधिकार रखते हैं।

यम-नियम

विद्या और अविद्या, बन्धन और उससे छुटकारा, सुख और दु:ख सब चित्त में हैं। अत: जो कोई अपने स्वरूप में स्थिति पाने का इच्छुक है उसको अपने चित्त को उन वस्तुओं से हटाने का प्रयत्न करना होगा, जो हठात्‌ प्रधान और उसके विकारों की ओर खींचती हैं और सुख दु:ख की अनुभूति उत्पन्न करती हैं। इस तरह चित्त को हटाने तथा चित्त के ऐसी वस्तुओं से हट जाने का नाम वैराग्य है। यह योग की पहली सीढ़ी है। पूर्ण वैराग्य एकदम नहीं हुआ करता। ज्यों ज्यों व्यक्ति योग की साधना में प्रवृत्त होता है त्यों त्यों वैराग्य भी बढ़ता है और ज्यों ज्यों वेराग्य बढ़ता है त्यों त्यों साधना में प्रवृत्ति बढ़ती है। जेसा पतंजलि ने कहा है: दृष्ट और अनुश्रविक दोनों प्रकार के विषयों में विरक्ति, गांधी जी के शब्दों में अनासक्ति, होनी चाहिए। स्वर्ग आदि, जिनका ज्ञान हमको अनुश्रुति अर्थात्‌ महात्माओं के वचनों और धर्मग्रन्थों से होता है, अनुश्रविक कहलाते हैं। योग की साधना को अभ्यास कहते हैं। इधर कई सौ वर्षो से साधुओं में इस आरम्भ में भजन शब्द भी चल पड़ा है।

चित्त जब तक इन्द्रियों के विषयों की ओर बढ़ता रहेगा, चंचल रहेगा। इन्द्रियाँ उसका एक के बाद दूसरी भोग्य वस्तु से सम्पर्क कराती रहेंगी। कितनों से वियोग भी कराती रहेंगी। काम, क्रोध, लोभ, आदि के उद्दीप्त होने के सैकड़ों अवसर आते रहेंगे। सुख दु:ख की निरन्तर अनुभूति होती रहेगी। इस प्रकार प्रधान ओर उसके विकारों के साथ जो बंधन अनेक जन्मों से चले आ रहे हैं वे दृढ़ से दृढ़तर होते चले जाएँगे। अत: चित्त को इन्द्रियों के विषयों से खींचकर अन्तर्मुखी करना होगा। इसके अनेक उपाय बताए गए हैं जिनके ब्योरे में जाने की आवश्यकता नहीं है। साधारण मनुष्य के चित्त की अवस्था क्षिप्त कहलाती है। वह एक विषय से दूसरे विषय की ओर फेंका फिरता है। जब उसको प्रयत्न करके किसी एक विषय पर लाया जाता है तब भी वह जल्दी से विषयंतर की ओर चला जाता है। इस अवस्था को विक्षिप्त कहते हैं। दीर्ध प्रयत्न के बाद साधक उसे किसी एक विषय पर देर तक रख सकता है। इस अवस्था का नाम एकाग्र है। चित्त को वशीभूत करना बहुत कठिन काम है। श्रीकृष्ण ने इसे प्रमाथि बलवत्‌-मस्त हाथी के समान बलवान्‌-बताया है।

आसन

चित्त को वश में करने में एक चीज से सहायता मिलती है। यह साधारण अनुभव की बात है कि जब तक शरीर चंचल रहता है, चित्त चंचल रहता है और चित्त की चंचलता शरीर को चंचल बनाए रहती है। शरीर की चंचलता नाड़ीसंस्थान की चंचलता पर निर्भर करती है। जब तक नाड़ीसंस्थान संक्षुब्ध रहेगा, शरीर पर इंद्रिय ग्राह्य विषयों के आधात होते रहेंगे। उन आधातों का प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ेगा जिसके फलस्वरूप चित्त और शरीर दोनों में ही चंचलता बनी रहेगी। चित्त को निश्चल बनाने के लिये योगी वैसा ही उपाय करता है जैसा कभी-कभी युद्ध में करना पड़ता है। किसी प्रबल शत्रु से लड़ने में यदि उसके मित्रों को परास्त किया जा सके तो सफलता की संभावना बढ़ जाती है। योगी चित्त पर अधिकार पाने के लिए शरीर और उसमें भी मुख्यत: नाड़ीसंस्थान, को वश में करने का प्रयत्न करता है। शरीर भौतिक है, नाड़ियाँ भी भौतिक हैं। इसलिये इनसे निपटना सहज है। जिस प्रक्रिया से यह बात सिद्ध होती है उसके दो अंग हैं: आसन और प्राणायाम। आसन से शरीर निश्चल बनता है। बहुत से आसनों का अभ्यास तो स्वास्थ्य की दृष्टि से किया जाता है। पतंजलि ने इतना ही कहा है: स्थिर सुखमासनम्‌ : जिसपर देर तक बिना कष्ट के बैठा जा सके वही आसन श्रेष्ठ है। यही सही है कि आसनसिद्धि के लिये स्वास्थ्य संबंधी कुछ नियमों का पालन आवश्यक है। जैसा श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-

युक्ताहार बिहारस्य, युक्त चेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य, योगो भवति दुःखहा॥

खाने, पीने, सोने, जागने सभी का नियन्त्रण करना होता है।

प्राणायाम

प्राणायाम शब्द के संबंध में बहुत भ्रम फैला हुआ है। इस भ्रम का कारण यह है कि आज लोग प्राण शब्द के अर्थ को प्राय: भूल गए हैं। बहुत से ऐसे लोग भी, जो अपने को योगी कहते हैं, इस शब्द के सम्बन्ध में भूल करते हैं। योगी को इस बात का प्रयत्न करना होता है कि वह अपने प्राण को सुषुम्ना में ले जाय। सुषुम्ना वह नाड़ी है जो मेरुदण्ड की नली में स्थित है और मस्त्तिष्क के नीचे तक पहुँचती है। यह कोई गुप्त चीज नहीं है। आँखों से देखी जा सकती है। करीब-करीब कनष्ठाि उँगली के बराबर मोटी होती है, ठोस है, इसमें कोई छेद नहीं है। प्राण का और साँस या हवा करनेवालों को इस बात का पता नहीं है कि इस नाड़ी में हवा के घुसने के लिये और ऊपर चढ़ने के लिये कोई मार्ग नहीं है। प्राण को हवा का समानार्थक मानकर ही ऐसी बातें कही जाती हैं कि अमुक महात्मा ने अपनी साँस को ब्रह्मांड में चढ़ा लिया। साँस पर नियंत्रण रखने से नाड़ीसंस्थान को स्थिर करने में निश्चय ही सहायता मिलती है, परंतु योगी का मुख्य उद्देश्य प्राण का नियंत्रण है, साँस का नहीं। प्राण वह शक्ति है जो नाड़ीसंस्थान में संचार करती है। शरीर के सभी अवयवों को और सभी धातुओं को प्राण से ही जीवन और सक्रियता मिलती है। जब शरीर के स्थिर होने से ओर प्राणायाम की क्रिया से, प्राण सुषुम्ना की ओर प्रवृत्त होता है तो उसका प्रवाह नीचे की नाड़ियों में से खिंच जाता है। अत: ये नाड़ियाँ बाहर के आधातों की ओर से एक प्रकार से शून्यवत्‌ हो जाती हैं।

प्रत्याहार

प्राणायाम का अभ्यास करना और प्राणायाम में सफलता पा जाना दो अलग अलग बातें हैं। परंतु वैराग्य और तीव्र संवेग के बल से सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। ज्यों-ज्यों अभ्यास दृढ़ होता है, त्यों-त्यों साधक के आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। एक और बात होती है। वह जितना ही अपने चित्त को इंद्रियों और उनके विषयों से दूर खींचता है उतना ही उसकी ऐंद्रिय शक्ति भी बढ़ती है अर्थात्‌ इंद्रियों की विषयों के भोग की शक्ति भी बढ़ती है। इसीलिये प्राणायाम के बाद प्रत्याहार का नाम लिया जाता है। प्रत्याहार का अर्थ है इंद्रियों को उनके विषयों से खींचना। वैराग्य के प्रसंग में यह उपदेश दिया जा चुका है परंतु प्राणायम तक पहँचकर इसकों विशेष रूप से दुहराने की आवश्यकता है। आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार के ही समुच्चय का नाम हठयोग है।

धारणा, ध्यान, समाधि

खेद की बात है कि कुछ अभ्यासी यहीं रुक जाते हैं। जो लोग आगे बढ़ते हैं उनके मार्ग को तीन विभागों में बाँटा जाता है: धारणा, ध्यान और समाधि। इन तीनों को एक दूसरे से बिल्कुल पृथक करना असंभव है। धारण पुष्ट होकर ध्यान का रूप धारण करती है और उन्नत ध्यान ही समाधि कहलाता है। पतंजलि ने तीनों को सम्मिलित रूप से संयम कहा है। धारणा वह उपाय है जिससे चित्त को एकाग्र करने में सहायता मिलती है। यहाँ उपाय शब्द का एकवचन में प्रयोग हुआ है परंतु वस्तुत: इस काम के अनेक उपाय हैं। इनमें से कुछ का चर्चा उपनिषदों में आया है। वैदिक वाड्मय में विद्या शब्द का प्रयोग किया गया है। किसी मंत्र के जप, किसी देव, देवी या महात्मा के विग्रह या सूर्य, अग्नि, दीपशिखा आदि को शरीर के किसी स्थानविशेष जेसे हृदयमूर्घा, तिल अर्थात दोनों आँखों के बीच के बिंदु, इनमें से किसी जगह कल्पना में स्थिर करना, इस प्रकार के जो भी उपाय किए जायँ वे सभी धारणा के अंतर्गत हैं। जैसा कि कुछ उपायों को बतलाने के बाद पतंजलि ने यह लिख दिया है - यथाभिमत ध्यानाद्वा-जो वस्तु अपने को अच्छी लगे उसपर ही चित्त को एकाग्र करने से काम चल सकता है। किसी पुराण में ऐसी कथा आई है कि अपने गुरु की आज्ञा से किसी अशिक्षित व्यक्ति ने अपनी भैंस के माध्यम से चित्त को एकाग्र करके समाधि प्राप्त की थी।

धारणा की सबसे उत्तम पद्धति वह है जिसे पुराने शब्दों में नादानुसंधान कहते हैं। कबीर और उनके परवर्ती संतों ने इसे सुरत शब्द योग की संज्ञा दी है। जिस प्रकार चंचल मृग वीणा के स्वरों से मुग्ध होकर चौकड़ी भरना भूल जाता है, उसी प्रकार साधक का चित्त नाद के प्रभाव से चंचलता छोड़कर स्थिर हो जाता है। वह नाद कौन सा है जिसमें चित्त की वृत्तियों को लय करने का प्रयास किया जाता है और यह प्रयास कैसे किया जाता है, ये बातें तो गुरुमुख से ही जानी जाती हैं। अंतर्नाद के सूक्ष्मत्तम रूप को प्रवल, ओंकार, कहते हैं। प्रणव वस्तुत: अनुच्चार्य्य है। उसका अनुभव किया जा सकता है, वाणी में व्यंजना नहीं, नादविंदूपनिषद् के शब्दों में:

ब्रह्म प्रणव संयानं, नादो ज्योतिर्मय: शिव:।

स्वयमाविर्भवेदात्मा मेयापायेऽशुमानिव॥

प्रणव के अनुसंधान से, ज्योतिर्मय और कल्याणकारी नाद उदित होता है। फिर आत्मा स्वयं उसी प्रकार प्रकट होता है, जेसे कि बादल के हटने पर चंद्रमा प्रकट होता है। आदि शब्द आंकार को परमात्मा का प्रतीक कहा जाता है। योगियों में सर्वत्र ही इसकी महिमा गाई गई है। बाइबिल के उस खंड में, जिसे सेंट जान्स गास्पेल कहते हैं, पहला ही वाक्य इस प्रकार हैं, आरंभ में शब्द था। वह शब्द परमात्मा के साथ था। वह शब्द परमात्मा था। सूफी संत कहते हैं हैफ़ दर बंदे जिस्म दरमानी, न शुनवी सौते पाके रहमानी दु:ख की बात है कि तू शरीर के बंधन में पड़ा रहता है और पवित्र दिव्य नाद को नहीं सुनता।

चित्त की एकाग्रता ज्यों ज्यों बढ़ती है त्यों त्यों साधकर को अनेक प्रकार के अनुभव होते हैं। मनुष्य अपनी इंद्रियों की शक्ति से परिचित नहीं है। उनसे न तो काम लेता है और न लेना चाहता है। यह बात सुनने में आश्चर्य की प्रतीत होती है, पर सच है। मान लीजिए, हमारी चक्षु या श्रोत्र इंद्रिया की शक्ति कल आज से कई गुना बढ़ जाय। तब न जाने ऐसी कितनी वस्तुएँ दृष्टिगोचर होने लगेंगी जिनको देखकर हम काँप उठेंगे। एक दूसरे के भीतर की रासायनिक क्रिया यदि एक बार देख पड़ जाय तो अपने प्रिय से प्रिय व्यक्ति की ओर से घृणा हो जायगी। हमारे परम मित्र पास की कोठरी में बैठे हमारे संबंध में क्या कहते हैं, यदि यह बात सुनने में आ जाय तो जीना दूभर हो जाय। हम कुछ वासनाओं के पुतले हैं। अपनी इंद्रयों से वहीं तक काम लेते हैं जहाँ तक वासनाओं की तृप्ति हो। इसलिये इंद्रियों की शक्ति प्रसुप्त रहती है परंतु जब योगाभ्यास के द्वारा वासनाओं का न्यूनाधिक शमन होता है तब इंद्रियाँ निर्बाध रूप से काम कर सकती हैं और हमको जगत्‌ के स्वरूप के वास्तविक रूप का कुछ परिचय दिलाती हैं। इस विश्व में स्पर्श, रूप, रस और गंध का अपार भंडार भरा पड़ा है जिसकी सत्ता का हमको अनुभव नहीं हैं। अंर्तर्मुख होने पर बिना हमारे प्रयास के ही इंद्रियाँ इस भंडार का द्वार हमारे सामने खोल देती हैं। सुषुम्ना में नाड़ियों की कई ग्रंथियाँ हैं, जिनमें कई जगहों से आई हुई नाड़ियाँ मिलती हैं। इन स्थानों को चक्र कहते हैं। इनमें से विशेष रूप से छह चक्रों का चर्चा योग के ग्रंथों में आता है। सबसे नीचे मुलाधार है जो प्राय: उस जगह पर है जहाँ सुषुम्ना का आरंभ होता है। और सबसे ऊपर आज्ञा चक्र है जो तिल के स्थान पर है। इसे तृतीय नेत्र भी कहते हैं। थोड़ा और ऊपर चलकर सुषुम्ना मस्तिष्क के नाड़िसंस्थान से मिल जाती है। मस्तिष्क के उस सबसे ऊपर के स्थान पर जिसे शरीर विज्ञान में सेरेब्रम कहते हैं, सहस्रारचक्र है। जैसा कि एक महात्मा ने कहा है:

मूलमंत्र करबंद विचारी सात चक्र नव शोधै नारी।।

योगी के प्रारंभिक अनुभवों में से कुछ की ओर ऊपर संकेत किया गया है। ऐसे कुछ अनुभवों का उल्लेख श्वेताश्वर उपनिषद् में भी किया गया है। वहाँ उन्होंने कहा है कि अनल, अनिल, सूर्य, चंद्र, खद्योत, धूम, स्फुलिंग, तारे अभिव्यक्तिकरानि योगे हैंश् यह सब योग में अभिव्यक्त करानेवाले चिह्न हैं अर्थात्‌ इनके द्वारा योगी को यह विश्वास हो सकता है कि मैं ठीक मार्ग पर चल रहा हूँ। इसके ऊपर समाधि तक पहुँचते पहुँचते योगी को जो अनुभव होते हैं उनका वर्णन करना असंभव है। कारण यह है कि उनका वर्णन करने के लिये साधारण मनुष्य को साधारण भाषा में कोई प्रतीक या शब्द नहीं मिलता। अच्छे योगियों ने उनके वर्णन के संबंध में कहा है कि यह काम वैसा ही है जैसे गूँगा गुड़ खाय। पूर्णांग मनुष्य भी किसी वस्तु के स्वाद का शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता, फिर गूँगा बेचारा तो असमर्थ है ही। गुड़ के स्वाद का कुछ परिचय फलों के स्वाद से या किसी अन्य मीठी चीज़ के सादृश्य के आधार पर दिया भी जा सकता है, पर जैसा अनुभव हमको साधारणत: होता ही नहीं, वह तो सचमुच वाणी के परे हैं।

समाधि की सर्वोच्च भूमिका के कुछ नीचे तक अस्मिता रह जाती है। अपनी पृथक सत्ता अहम्‌ अस्मि (मैं हूँ) यह प्रतीति रहती है। अहम्‌ अस्मि = मैं हूँ की संतान अर्थात निरंतर इस भावना के कारण वहाँ तक काल की सत्ता है। इसके बाद झीनी अविद्या मात्र रह जाती है। उसके शय होने की अवस्था का नाम असंप्रज्ञात समाधि है जिसमें अविद्या का भी क्षय हो जाता है और प्रधान से कल्पित संबंध का विच्छेद हो जाता है। यह योग की पराकाष्ठा है। इसके आगे फिर शास्त्रार्थ का द्वार खुल जाता है। सांख्य के आचार्य कहते हैं कि जो योगी पुरुष यहाँ तक पहुँचा, उसके लिये फिर तो प्रकृति का खेल बंद हो जाता है। दूसरे लोगों के लिये जारी रहता है। वह इस बात को यों समझाते हैं। किसी जगह नृत्य हो रहा है। कई व्यक्ति उसे देख रहे हैं। एक व्यक्ति उनमें ऐसा भी है जिसको उस नृत्य में कोई अभिरुचि नहीं है। वह नर्तकी की ओर से आँख फेर लेता है। उसके लिये नृत्य नहीं के बराबर है। दूसरे के लिये वह रोचक है। उन्होंने कहा है कि उस अजा के साथ अर्थात नित्या के साथ अज एकोऽनुशेते = एक अज शयन करता है और जहात्येनाम्‌ भुक्तभोगाम्‌ तथान्य:-उसके भोग से तृप्त होकर दूसरा त्याग देता है।

अद्वैत वेदान्त के आचार्य सांख्यसंमत पुरुषों की अनेकता को स्वीकार नहीं करते। उनके अतिरिक्त और भी कई दार्श्निक संप्रदाय हैं जिनके अपने अलग अलग सिद्धांत हैं। पहले कहा जा चुका हैं कि इस शास्त्रार्थ में यहां पड़ने की आवश्यकता नहीं हैं। जहां तक योग के व्यवहारिक रूप की बात है उसमें किसी को विरोध नहीं है। वेदांत के आचार्य भी निर्दिध्यासन की उपयोगिता को स्वीकार करते हैं और वेदांत दर्शन में व्यास ने भी असकृदभ्यासात्‌ ओर आसीन: संभवात्‌ जैसे सूत्रों में इसका समर्थन किया है। इतना ही हमारे लिये पर्याप्त है।

साधारणत: योग को अष्टांग कहा जाता है परंतु यहाँ अब तक आसन से लेकर समाधि तक छह अंगों का ही उल्लेख किया गया है। शेष दो अंगों को इसलिये नहीं छोड़ा कि वे अनावश्यक हैं वरन्‌ इसलिए कि वह योगी ही नहीं प्रत्युत मनुष्य मात्र के लिए परम उपयोगी हैं। उनमें प्रथम स्थान यम का है। इनके संबंध में कहा गया है कि यह देश काल, समय से अनवच्छिन्न ओर सार्वभौम महाब्रत हैं अर्थात्‌ प्रत्येक मनुष्य को प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक समय और प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के साथ इनका पालन करना चाहिए। दूसरा अंग नियम कहलाता है। जो लोग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते उनके लिये ईश्वर पर निष्ठा रखने का कोई और नहीं है। परंतु वह लोग भी प्राय: किसी न किसी ऐसे व्यक्ति पर श्रद्धा रखते हैं जो उनके लिये ईश्वर तुल्य है। बौद्ध को बुद्धदेव के प्रति जो निष्ठा है वह उससे कम नहीं है जो किसी भी ईश्वरवादी को ईश्वर पर होती होगी। एक और बात है। किसी को ईश्वर पर श्रद्धा हो या न हो, योग मार्ग के उपदेष्टा गुरु पर तो अनन्य श्रद्धा होनी ही चाहिए। योगाभ्यासी के लिये गुरु का स्थान किसी भी दृष्टि से ईश्वर से कम नहीं। ईश्वर हो या न हो परंतु गुरु के होने पर तो कोई संदेह हो ही नहीं सकता। एक साधक चरणादास जी की शिष्या सहजोबाई ने कहा है:

गुरुचरनन पर तन-मन वारूँ, गुरु न तजूँ हरि को तज डारूँ।

आज कल यह बात सुनने में आती है कि परम पुरुषार्थ प्राप्त करने के लिये ज्ञान पर्याप्त है। योग की आवश्यकता नहीं है। जो लोग ऐसा कहते हैं, वह ज्ञान शब्द के अर्थ पर गंभीरता से विचार नहीं करते। ज्ञान दो प्रकार का होता है-तज्ज्ञान और तद्विषयक ज्ञान। दोनों में अंतर है। कोई व्यक्ति अपना सारा जीवन रसायन आदि शास्त्रों के अध्ययन में बिताकर शक्कर के संबंध में जानकारी प्राप्त कर सकता है। शक्कर के अणु में किन किन रासायनिक तत्वों के कितने कितने परमाणु होते हैं? शक्कर कैसे बनाई जाती है? उसपर कौन कौन सी रासानिक क्रिया और प्रतिक्रियाएँ होती हैं? इत्यादि। यह सब शक्कर विषयक ज्ञान है। यह भी उपयोगी हो सकता है परंतु शक्कर का वास्तविक ज्ञान तो उसी समय होता है जब एक चुटकी शक्कर मुँह में रखी जाती है। यह शक्कर का तत्वज्ञान है। शास्त्रों के अध्ययन से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान है और उसके प्रकाश में तद्विषयक ज्ञान भी पूरी तरह समझ में आ सकता हैं। इसीलिये उपनिषद् के अनुसार जब यम ने नचिकेता को अध्यात्म ज्ञान का उपदेश दिया तो उसके साथ में योगविधि च कृत्स्नम्‌ की भी दीक्षा दी, नहीं तो नचिकेता का बोध अधूरा ही रह जाता। जो लोग भक्ति आदि की साधना रूप से प्रशंसा करते हैं उनकोश् भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि यदि उनके मार्ग में वित्त को एकाग्र करने का कोई उपाय है तो वह वस्तुत: योग की धारणा अंग के अंतर्गत है। यह उनकी मर्जी है कि सनातन योग शब्द को छोड़कर नये शब्दों का व्यवहार करते हैं।

योग के अभ्यास से उस प्रकार की शक्तियों का उदय होता है जिनको विभूति या सिद्धि कहते हैं। यदि पर्याप्त समय तक अभ्यास करने के बाद भी किसी मनुष्य में ऐसी असाधारण शक्तियों का आगम नहीं हुआ तो यह मानना चाहिए कि वह ठीक मार्ग पर नहीं चल रहा है। परन्तु सिद्धियों में कोई जादू की बात नहीं है। इंद्रियों की शक्ति बहुत अधिक है परंतु साधारणत: हमको उसका ज्ञान नहीं होता और न हम उससे काम लेते हैं। अभयासी को उस शक्ति का परिचय मिलता है, उसको जगत्‌ के स्वरूप के संबंध में ऐसे अनुभव होते हैं जो दूसरों को प्राप्त नहीं हैं। दूर की या छिपी हुई वस्तु को देख लेना, व्यवहृत बातों को सुन लेना इत्यादि इंद्रियों की सहज शक्ति की सीमा के भीतर की बाते हैं परंतु साधारण मनुष्य के लिये यह आश्चर्यश् का विषय हैं, इनकों सिद्धि कहा जायगा। इसी प्रकार मनुष्य में और भी बहुत सी शक्तियाँ हें जो साधारण अवस्था में प्रसुप्त रहती हैं। योग के अभ्यास से जाग उठती हैं। यदि हम किसी सड़क पर कहीं जा रहे हो तो अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए भी अनायास ही दाहिने बाएँ उपस्थित विषयों को देख लेंगे। सच तो यह है कि जो कोई इन विषयों को देखने के लिये रुकेगा वह गन्तव्य स्थान तक पहुँचेगा ही नहीं ओर बीच में ही रह जायगा। इसीलिये कहा गया है कि जो कोई सिद्धियों के लिये प्रयत्न करता है वह अपने को समाधि से वंचित करता है। पतंजलि ने कहा है:

परिचय

योगदर्शन में पुरूष तत्व केन्द्रीय विषय के रूप में प्रस्तुत हुआ है। यद्यपि पुरूष और प्रकृति दोनों की स्वतन्त्र सत्ता मानी गयी है परन्तु तात्विक रूप में पुरूष की सत्ता ही सर्वोच्च है। पुरूष के दो भेद कहे गये हैं । पुरूष को चैतन्य एवं अपरिणामी कहा गया है, किन्तु अविद्या के कारण पुरूष जड़ एवं परिणाम चित्त में स्वयं को आरोपित कर लेता है। पुरूष और चित्त के संयुक्त हो जाने पर विवेक जाता रहता है और पुरूष स्वयं को चित्त रूप में अनुभव करने लगता है। यह अज्ञान ही पुरूष के समस्त दुःखों, क्लेशों का कारण हैं। योग दर्शन का उद्देश्य पुरूष को इस दुःख से, अज्ञान से, मुक्त कराना है। इसी तथ्य को सैद्धान्तिक रूप से योग दर्शन में हेय, हेय-हेतु, हान और हानोपाय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन चार क्रमों में पुरूष दुःखों से मुक्ति पाता है, इसलिये योग में इसे 'चतुर्व्यूहवाद' कहा गया है एवं इस चतुर्व्यूह से मुक्त होना ही योग का परम उद्देश्य है। चतुर्व्यूहवाद की विवेचना में ही योग दर्शन में पुरूष, पुरूषार्थ और पुरूषार्थशून्यता का दर्शन प्रकट होता है। पुरूष अविद्याग्रस्त होने पर संसार-चक्र में पड़ता है और पुरूषार्थशून्यता की अवस्था को प्राप्त करता है। पुरूष का परम लक्ष्य कैवल्य की प्राप्ति है। योग में पुरूष को आत्मा का पर्याय माना गया है। अतः आत्मा, जो कि संख्या में असंख्य है, उसकी कैवल्य प्राप्ति तभी हो सकती है जब चतुर्व्यूह का पुरूषार्थ साधन कर दुःख के त्रिविध रूपों का सामाधान कर लिया जाय। दुःख के तीन रूप है - आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। पुरूषार्थशून्यता इन त्रितापों से ऊपर की अवस्था है। पुरूषार्थशून्यता के पश्चात् ही पुरूष की अपने स्वरूप की स्थिति होती है। योगदर्शन में इसे ही कैवल्य अथवा मोक्ष कहा गया है।

पतंजलि को कपिल द्वारा बताया गया सांख्यदर्शन ही अभिमत है। थोड़े में, इस दर्शन के अनुसार इस जगत्‌ में असंख्य पुरुष हैं और एक प्रधान या मूल प्रकृति। पुरुष चित्‌ है, प्रधान अचित्‌। पुरुष नित्य है और अपरिवर्तनशील, प्रधान भी नित्य है परन्तु परिवर्तनशील। दोनों एक दूसरे से सदा पृथक हैं, परन्तु एक प्रकार से एक का दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। पुरुष के सान्निध्य से प्रकृति में परिवर्तन होने लगते हैं। वह क्षुब्ध हो उठती है। पहले उसमें महत्‌ या बुद्धि की उत्पत्ति होती है, फिर अहंकार की, फिर मन की। अहंकार से ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों तथा पाँच तन्मात्राओं अर्थात्‌ शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध की, अन्त में इन पाँचों से आकाश, वायु, तेज, अप और क्षिति नाम के महाभूतों की। इन सबके संयोग वियोग से इस विश्व का खेल हो रहा है। संक्षेप में, यही सृष्टि का क्रम है। प्रकृति में परिवर्तन भले ही हो परन्तु पुरुष ज्यों का त्यों रहता है। फिर भी एक बात होती है। जैसे श्वेत स्फटिक के सामने रंग बिरंगे फूलों को लाने से उसपर उनका रंगीन प्रतिबिम्ब पड़ता है, इसी प्रकार पुरुष पर प्राकृतिक विकृतियों के प्रतिबिम्ब पड़ते हैं। क्रमश: वह बुद्धि से लेकर क्षिति तक से रंजित प्रतीत होता है, अपने को प्रकृति के इन विकारों से संबद्ध मानने लगता है। आज अपने को धनी, निर्धन, बलवान्‌ दुर्बल, कुटुंबी, सुखी, दु:खी, आदि मान रहा है। अपने शुद्ध रूप से दूर जा पड़ा है। यह उसका भ्रम, अविद्या है। प्रधान से बने हुए इन पदार्थो ने उसके रूप को ढँक रखा है, उसके ऊपर कई तह खोल पड़ गई है। यदि वह इन खोलों, इन आवरणों को दूर फेंक दे तो उसका छुटकारा हो जायगा। जिस क्रम से बँधा है, उसके उलटे क्रम से बन्धन टूटेंगे। पहले महाभूतों से ऊपर उठना होगा। अन्त में प्रधान की ओर से मुँह फेरना होगा। यह बन्धन वास्तविक नहीं है, परन्तु बहुत ही दृढ़ प्रतीत होते हैं। जिस उपयोग से बंधनों को तोड़कर पुरुष अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो सके उस उपाय का नाम योग है। सांख्य के आचार्यो का कहना है: यद्वा तद्वा तदुच्छिति: परमपुरुषार्थः - जैसे भी हो सके पुरुष और प्रधान के इस कृत्रिम संयोग का उच्छेद करना परम पुरुषार्थ हैं।

योग का यही दार्शनिक धरातल है: अविद्या के दूर होने पर जो अवस्था होती है उसका वर्णन विभिन्न आचार्यों और विचारकों के विभिन्न ढँग से किया है। अपने-अपने विचार के अनुसार उन्होंने उसको पृथक नाम भी दिए हैं। कोई उसे कैवल्य कहता है, कोई मोक्ष, कोई निर्वाण। ऊपर पहुँचकर जिसको जैसा अनुभव हो वह उसे उस प्रकार कहे। वस्तुत: वह अवस्था ऐसी हैयतो वाचो निवर्तते अप्राप्य मनसा सह - जहाँ मन ओर वाणी की पहुँच नहीं है। थोड़े से शब्दों में एक और बात का भी चर्चा कर देना आवश्यक है। असंख्य पुरुषों के साथ पतंजलि ने 'पुरुष विशेष' नाम से ईश्वर की सत्ता को भी माना है। सांख्य के आचार्य ऐसा नहीं मानते। वस्तुत: मानने की आवश्यकता भी नहीं है। यदि योगदर्शन में से वह थोड़े से सूत्र निकाल भी लें तो कोई अंतर नहीं पड़ता। योग की साधना की दृष्टि से ईश्वर को मानने, न मानने का विशेष महत्व नहीं है। ईश्वर की सत्ता को मानने वाले और न मानने वाले, दोनों योग में समान रूप से अधिकार रखते हैं।

यम-नियम

विद्या और अविद्या, बन्धन और उससे छुटकारा, सुख और दु:ख सब चित्त में हैं। अत: जो कोई अपने स्वरूप में स्थिति पाने का इच्छुक है उसको अपने चित्त को उन वस्तुओं से हटाने का प्रयत्न करना होगा, जो हठात्‌ प्रधान और उसके विकारों की ओर खींचती हैं और सुख दु:ख की अनुभूति उत्पन्न करती हैं। इस तरह चित्त को हटाने तथा चित्त के ऐसी वस्तुओं से हट जाने का नाम वैराग्य है। यह योग की पहली सीढ़ी है। पूर्ण वैराग्य एकदम नहीं हुआ करता। ज्यों ज्यों व्यक्ति योग की साधना में प्रवृत्त होता है त्यों त्यों वैराग्य भी बढ़ता है और ज्यों ज्यों वेराग्य बढ़ता है त्यों त्यों साधना में प्रवृत्ति बढ़ती है। जेसा पतंजलि ने कहा है: दृष्ट और अनुश्रविक दोनों प्रकार के विषयों में विरक्ति, गांधी जी के शब्दों में अनासक्ति, होनी चाहिए। स्वर्ग आदि, जिनका ज्ञान हमको अनुश्रुति अर्थात्‌ महात्माओं के वचनों और धर्मग्रन्थों से होता है, अनुश्रविक कहलाते हैं। योग की साधना को अभ्यास कहते हैं। इधर कई सौ वर्षो से साधुओं में इस आरम्भ में भजन शब्द भी चल पड़ा है।

चित्त जब तक इन्द्रियों के विषयों की ओर बढ़ता रहेगा, चंचल रहेगा। इन्द्रियाँ उसका एक के बाद दूसरी भोग्य वस्तु से सम्पर्क कराती रहेंगी। कितनों से वियोग भी कराती रहेंगी। काम, क्रोध, लोभ, आदि के उद्दीप्त होने के सैकड़ों अवसर आते रहेंगे। सुख दु:ख की निरन्तर अनुभूति होती रहेगी। इस प्रकार प्रधान ओर उसके विकारों के साथ जो बंधन अनेक जन्मों से चले आ रहे हैं वे दृढ़ से दृढ़तर होते चले जाएँगे। अत: चित्त को इन्द्रियों के विषयों से खींचकर अन्तर्मुखी करना होगा। इसके अनेक उपाय बताए गए हैं जिनके ब्योरे में जाने की आवश्यकता नहीं है। साधारण मनुष्य के चित्त की अवस्था क्षिप्त कहलाती है। वह एक विषय से दूसरे विषय की ओर फेंका फिरता है। जब उसको प्रयत्न करके किसी एक विषय पर लाया जाता है तब भी वह जल्दी से विषयंतर की ओर चला जाता है। इस अवस्था को विक्षिप्त कहते हैं। दीर्ध प्रयत्न के बाद साधक उसे किसी एक विषय पर देर तक रख सकता है। इस अवस्था का नाम एकाग्र है। चित्त को वशीभूत करना बहुत कठिन काम है। श्रीकृष्ण ने इसे प्रमाथि बलवत्‌-मस्त हाथी के समान बलवान्‌-बताया है।

आसन

चित्त को वश में करने में एक चीज से सहायता मिलती है। यह साधारण अनुभव की बात है कि जब तक शरीर चंचल रहता है, चित्त चंचल रहता है और चित्त की चंचलता शरीर को चंचल बनाए रहती है। शरीर की चंचलता नाड़ीसंस्थान की चंचलता पर निर्भर करती है। जब तक नाड़ीसंस्थान संक्षुब्ध रहेगा, शरीर पर इंद्रिय ग्राह्य विषयों के आधात होते रहेंगे। उन आधातों का प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ेगा जिसके फलस्वरूप चित्त और शरीर दोनों में ही चंचलता बनी रहेगी। चित्त को निश्चल बनाने के लिये योगी वैसा ही उपाय करता है जैसा कभी-कभी युद्ध में करना पड़ता है। किसी प्रबल शत्रु से लड़ने में यदि उसके मित्रों को परास्त किया जा सके तो सफलता की संभावना बढ़ जाती है। योगी चित्त पर अधिकार पाने के लिए शरीर और उसमें भी मुख्यत: नाड़ीसंस्थान, को वश में करने का प्रयत्न करता है। शरीर भौतिक है, नाड़ियाँ भी भौतिक हैं। इसलिये इनसे निपटना सहज है। जिस प्रक्रिया से यह बात सिद्ध होती है उसके दो अंग हैं: आसन और प्राणायाम। आसन से शरीर निश्चल बनता है। बहुत से आसनों का अभ्यास तो स्वास्थ्य की दृष्टि से किया जाता है। पतंजलि ने इतना ही कहा है: स्थिर सुखमासनम्‌ : जिसपर देर तक बिना कष्ट के बैठा जा सके वही आसन श्रेष्ठ है। यही सही है कि आसनसिद्धि के लिये स्वास्थ्य संबंधी कुछ नियमों का पालन आवश्यक है। जैसा श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-

युक्ताहार बिहारस्य, युक्त चेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य, योगो भवति दुःखहा॥

खाने, पीने, सोने, जागने सभी का नियन्त्रण करना होता है।

प्राणायाम

प्राणायाम शब्द के संबंध में बहुत भ्रम फैला हुआ है। इस भ्रम का कारण यह है कि आज लोग प्राण शब्द के अर्थ को प्राय: भूल गए हैं। बहुत से ऐसे लोग भी, जो अपने को योगी कहते हैं, इस शब्द के सम्बन्ध में भूल करते हैं। योगी को इस बात का प्रयत्न करना होता है कि वह अपने प्राण को सुषुम्ना में ले जाय। सुषुम्ना वह नाड़ी है जो मेरुदण्ड की नली में स्थित है और मस्त्तिष्क के नीचे तक पहुँचती है। यह कोई गुप्त चीज नहीं है। आँखों से देखी जा सकती है। करीब-करीब कनष्ठाि उँगली के बराबर मोटी होती है, ठोस है, इसमें कोई छेद नहीं है। प्राण का और साँस या हवा करनेवालों को इस बात का पता नहीं है कि इस नाड़ी में हवा के घुसने के लिये और ऊपर चढ़ने के लिये कोई मार्ग नहीं है। प्राण को हवा का समानार्थक मानकर ही ऐसी बातें कही जाती हैं कि अमुक महात्मा ने अपनी साँस को ब्रह्मांड में चढ़ा लिया। साँस पर नियंत्रण रखने से नाड़ीसंस्थान को स्थिर करने में निश्चय ही सहायता मिलती है, परंतु योगी का मुख्य उद्देश्य प्राण का नियंत्रण है, साँस का नहीं। प्राण वह शक्ति है जो नाड़ीसंस्थान में संचार करती है। शरीर के सभी अवयवों को और सभी धातुओं को प्राण से ही जीवन और सक्रियता मिलती है। जब शरीर के स्थिर होने से ओर प्राणायाम की क्रिया से, प्राण सुषुम्ना की ओर प्रवृत्त होता है तो उसका प्रवाह नीचे की नाड़ियों में से खिंच जाता है। अत: ये नाड़ियाँ बाहर के आधातों की ओर से एक प्रकार से शून्यवत्‌ हो जाती हैं।

प्रत्याहार

प्राणायाम का अभ्यास करना और प्राणायाम में सफलता पा जाना दो अलग अलग बातें हैं। परंतु वैराग्य और तीव्र संवेग के बल से सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। ज्यों-ज्यों अभ्यास दृढ़ होता है, त्यों-त्यों साधक के आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। एक और बात होती है। वह जितना ही अपने चित्त को इंद्रियों और उनके विषयों से दूर खींचता है उतना ही उसकी ऐंद्रिय शक्ति भी बढ़ती है अर्थात्‌ इंद्रियों की विषयों के भोग की शक्ति भी बढ़ती है। इसीलिये प्राणायाम के बाद प्रत्याहार का नाम लिया जाता है। प्रत्याहार का अर्थ है इंद्रियों को उनके विषयों से खींचना। वैराग्य के प्रसंग में यह उपदेश दिया जा चुका है परंतु प्राणायम तक पहँचकर इसकों विशेष रूप से दुहराने की आवश्यकता है। आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार के ही समुच्चय का नाम हठयोग है।

धारणा, ध्यान, समाधि

खेद की बात है कि कुछ अभ्यासी यहीं रुक जाते हैं। जो लोग आगे बढ़ते हैं उनके मार्ग को तीन विभागों में बाँटा जाता है: धारणा, ध्यान और समाधि। इन तीनों को एक दूसरे से बिल्कुल पृथक करना असंभव है। धारण पुष्ट होकर ध्यान का रूप धारण करती है और उन्नत ध्यान ही समाधि कहलाता है। पतंजलि ने तीनों को सम्मिलित रूप से संयम कहा है। धारणा वह उपाय है जिससे चित्त को एकाग्र करने में सहायता मिलती है। यहाँ उपाय शब्द का एकवचन में प्रयोग हुआ है परंतु वस्तुत: इस काम के अनेक उपाय हैं। इनमें से कुछ का चर्चा उपनिषदों में आया है। वैदिक वाड्मय में विद्या शब्द का प्रयोग किया गया है। किसी मंत्र के जप, किसी देव, देवी या महात्मा के विग्रह या सूर्य, अग्नि, दीपशिखा आदि को शरीर के किसी स्थानविशेष जेसे हृदयमूर्घा, तिल अर्थात दोनों आँखों के बीच के बिंदु, इनमें से किसी जगह कल्पना में स्थिर करना, इस प्रकार के जो भी उपाय किए जायँ वे सभी धारणा के अंतर्गत हैं। जैसा कि कुछ उपायों को बतलाने के बाद पतंजलि ने यह लिख दिया है - यथाभिमत ध्यानाद्वा-जो वस्तु अपने को अच्छी लगे उसपर ही चित्त को एकाग्र करने से काम चल सकता है। किसी पुराण में ऐसी कथा आई है कि अपने गुरु की आज्ञा से किसी अशिक्षित व्यक्ति ने अपनी भैंस के माध्यम से चित्त को एकाग्र करके समाधि प्राप्त की थी।

धारणा की सबसे उत्तम पद्धति वह है जिसे पुराने शब्दों में नादानुसंधान कहते हैं। कबीर और उनके परवर्ती संतों ने इसे सुरत शब्द योग की संज्ञा दी है। जिस प्रकार चंचल मृग वीणा के स्वरों से मुग्ध होकर चौकड़ी भरना भूल जाता है, उसी प्रकार साधक का चित्त नाद के प्रभाव से चंचलता छोड़कर स्थिर हो जाता है। वह नाद कौन सा है जिसमें चित्त की वृत्तियों को लय करने का प्रयास किया जाता है और यह प्रयास कैसे किया जाता है, ये बातें तो गुरुमुख से ही जानी जाती हैं। अंतर्नाद के सूक्ष्मत्तम रूप को प्रवल, ओंकार, कहते हैं। प्रणव वस्तुत: अनुच्चार्य्य है। उसका अनुभव किया जा सकता है, वाणी में व्यंजना नहीं, नादविंदूपनिषद् के शब्दों में:

ब्रह्म प्रणव संयानं, नादो ज्योतिर्मय: शिव:।

स्वयमाविर्भवेदात्मा मेयापायेऽशुमानिव॥

प्रणव के अनुसंधान से, ज्योतिर्मय और कल्याणकारी नाद उदित होता है। फिर आत्मा स्वयं उसी प्रकार प्रकट होता है, जेसे कि बादल के हटने पर चंद्रमा प्रकट होता है। आदि शब्द आंकार को परमात्मा का प्रतीक कहा जाता है। योगियों में सर्वत्र ही इसकी महिमा गाई गई है। बाइबिल के उस खंड में, जिसे सेंट जान्स गास्पेल कहते हैं, पहला ही वाक्य इस प्रकार हैं, आरंभ में शब्द था। वह शब्द परमात्मा के साथ था। वह शब्द परमात्मा था। सूफी संत कहते हैं हैफ़ दर बंदे जिस्म दरमानी, न शुनवी सौते पाके रहमानी दु:ख की बात है कि तू शरीर के बंधन में पड़ा रहता है और पवित्र दिव्य नाद को नहीं सुनता।

चित्त की एकाग्रता ज्यों ज्यों बढ़ती है त्यों त्यों साधकर को अनेक प्रकार के अनुभव होते हैं। मनुष्य अपनी इंद्रियों की शक्ति से परिचित नहीं है। उनसे न तो काम लेता है और न लेना चाहता है। यह बात सुनने में आश्चर्य की प्रतीत होती है, पर सच है। मान लीजिए, हमारी चक्षु या श्रोत्र इंद्रिया की शक्ति कल आज से कई गुना बढ़ जाय। तब न जाने ऐसी कितनी वस्तुएँ दृष्टिगोचर होने लगेंगी जिनको देखकर हम काँप उठेंगे। एक दूसरे के भीतर की रासायनिक क्रिया यदि एक बार देख पड़ जाय तो अपने प्रिय से प्रिय व्यक्ति की ओर से घृणा हो जायगी। हमारे परम मित्र पास की कोठरी में बैठे हमारे संबंध में क्या कहते हैं, यदि यह बात सुनने में आ जाय तो जीना दूभर हो जाय। हम कुछ वासनाओं के पुतले हैं। अपनी इंद्रयों से वहीं तक काम लेते हैं जहाँ तक वासनाओं की तृप्ति हो। इसलिये इंद्रियों की शक्ति प्रसुप्त रहती है परंतु जब योगाभ्यास के द्वारा वासनाओं का न्यूनाधिक शमन होता है तब इंद्रियाँ निर्बाध रूप से काम कर सकती हैं और हमको जगत्‌ के स्वरूप के वास्तविक रूप का कुछ परिचय दिलाती हैं। इस विश्व में स्पर्श, रूप, रस और गंध का अपार भंडार भरा पड़ा है जिसकी सत्ता का हमको अनुभव नहीं हैं। अंर्तर्मुख होने पर बिना हमारे प्रयास के ही इंद्रियाँ इस भंडार का द्वार हमारे सामने खोल देती हैं। सुषुम्ना में नाड़ियों की कई ग्रंथियाँ हैं, जिनमें कई जगहों से आई हुई नाड़ियाँ मिलती हैं। इन स्थानों को चक्र कहते हैं। इनमें से विशेष रूप से छह चक्रों का चर्चा योग के ग्रंथों में आता है। सबसे नीचे मुलाधार है जो प्राय: उस जगह पर है जहाँ सुषुम्ना का आरंभ होता है। और सबसे ऊपर आज्ञा चक्र है जो तिल के स्थान पर है। इसे तृतीय नेत्र भी कहते हैं। थोड़ा और ऊपर चलकर सुषुम्ना मस्तिष्क के नाड़िसंस्थान से मिल जाती है। मस्तिष्क के उस सबसे ऊपर के स्थान पर जिसे शरीर विज्ञान में सेरेब्रम कहते हैं, सहस्रारचक्र है। जैसा कि एक महात्मा ने कहा है:

मूलमंत्र करबंद विचारी सात चक्र नव शोधै नारी।।

योगी के प्रारंभिक अनुभवों में से कुछ की ओर ऊपर संकेत किया गया है। ऐसे कुछ अनुभवों का उल्लेख श्वेताश्वर उपनिषद् में भी किया गया है। वहाँ उन्होंने कहा है कि अनल, अनिल, सूर्य, चंद्र, खद्योत, धूम, स्फुलिंग, तारे अभिव्यक्तिकरानि योगे हैंश् यह सब योग में अभिव्यक्त करानेवाले चिह्न हैं अर्थात्‌ इनके द्वारा योगी को यह विश्वास हो सकता है कि मैं ठीक मार्ग पर चल रहा हूँ। इसके ऊपर समाधि तक पहुँचते पहुँचते योगी को जो अनुभव होते हैं उनका वर्णन करना असंभव है। कारण यह है कि उनका वर्णन करने के लिये साधारण मनुष्य को साधारण भाषा में कोई प्रतीक या शब्द नहीं मिलता। अच्छे योगियों ने उनके वर्णन के संबंध में कहा है कि यह काम वैसा ही है जैसे गूँगा गुड़ खाय। पूर्णांग मनुष्य भी किसी वस्तु के स्वाद का शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता, फिर गूँगा बेचारा तो असमर्थ है ही। गुड़ के स्वाद का कुछ परिचय फलों के स्वाद से या किसी अन्य मीठी चीज़ के सादृश्य के आधार पर दिया भी जा सकता है, पर जैसा अनुभव हमको साधारणत: होता ही नहीं, वह तो सचमुच वाणी के परे हैं।

समाधि की सर्वोच्च भूमिका के कुछ नीचे तक अस्मिता रह जाती है। अपनी पृथक सत्ता अहम्‌ अस्मि (मैं हूँ) यह प्रतीति रहती है। अहम्‌ अस्मि = मैं हूँ की संतान अर्थात निरंतर इस भावना के कारण वहाँ तक काल की सत्ता है। इसके बाद झीनी अविद्या मात्र रह जाती है। उसके शय होने की अवस्था का नाम असंप्रज्ञात समाधि है जिसमें अविद्या का भी क्षय हो जाता है और प्रधान से कल्पित संबंध का विच्छेद हो जाता है। यह योग की पराकाष्ठा है। इसके आगे फिर शास्त्रार्थ का द्वार खुल जाता है। सांख्य के आचार्य कहते हैं कि जो योगी पुरुष यहाँ तक पहुँचा, उसके लिये फिर तो प्रकृति का खेल बंद हो जाता है। दूसरे लोगों के लिये जारी रहता है। वह इस बात को यों समझाते हैं। किसी जगह नृत्य हो रहा है। कई व्यक्ति उसे देख रहे हैं। एक व्यक्ति उनमें ऐसा भी है जिसको उस नृत्य में कोई अभिरुचि नहीं है। वह नर्तकी की ओर से आँख फेर लेता है। उसके लिये नृत्य नहीं के बराबर है। दूसरे के लिये वह रोचक है। उन्होंने कहा है कि उस अजा के साथ अर्थात नित्या के साथ अज एकोऽनुशेते = एक अज शयन करता है और जहात्येनाम्‌ भुक्तभोगाम्‌ तथान्य:-उसके भोग से तृप्त होकर दूसरा त्याग देता है।

अद्वैत वेदान्त के आचार्य सांख्यसंमत पुरुषों की अनेकता को स्वीकार नहीं करते। उनके अतिरिक्त और भी कई दार्श्निक संप्रदाय हैं जिनके अपने अलग अलग सिद्धांत हैं। पहले कहा जा चुका हैं कि इस शास्त्रार्थ में यहां पड़ने की आवश्यकता नहीं हैं। जहां तक योग के व्यवहारिक रूप की बात है उसमें किसी को विरोध नहीं है। वेदांत के आचार्य भी निर्दिध्यासन की उपयोगिता को स्वीकार करते हैं और वेदांत दर्शन में व्यास ने भी असकृदभ्यासात्‌ ओर आसीन: संभवात्‌ जैसे सूत्रों में इसका समर्थन किया है। इतना ही हमारे लिये पर्याप्त है।

साधारणत: योग को अष्टांग कहा जाता है परंतु यहाँ अब तक आसन से लेकर समाधि तक छह अंगों का ही उल्लेख किया गया है। शेष दो अंगों को इसलिये नहीं छोड़ा कि वे अनावश्यक हैं वरन्‌ इसलिए कि वह योगी ही नहीं प्रत्युत मनुष्य मात्र के लिए परम उपयोगी हैं। उनमें प्रथम स्थान यम का है। इनके संबंध में कहा गया है कि यह देश काल, समय से अनवच्छिन्न ओर सार्वभौम महाब्रत हैं अर्थात्‌ प्रत्येक मनुष्य को प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक समय और प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के साथ इनका पालन करना चाहिए। दूसरा अंग नियम कहलाता है। जो लोग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते उनके लिये ईश्वर पर निष्ठा रखने का कोई और नहीं है। परंतु वह लोग भी प्राय: किसी न किसी ऐसे व्यक्ति पर श्रद्धा रखते हैं जो उनके लिये ईश्वर तुल्य है। बौद्ध को बुद्धदेव के प्रति जो निष्ठा है वह उससे कम नहीं है जो किसी भी ईश्वरवादी को ईश्वर पर होती होगी। एक और बात है। किसी को ईश्वर पर श्रद्धा हो या न हो, योग मार्ग के उपदेष्टा गुरु पर तो अनन्य श्रद्धा होनी ही चाहिए। योगाभ्यासी के लिये गुरु का स्थान किसी भी दृष्टि से ईश्वर से कम नहीं। ईश्वर हो या न हो परंतु गुरु के होने पर तो कोई संदेह हो ही नहीं सकता। एक साधक चरणादास जी की शिष्या सहजोबाई ने कहा है:

गुरुचरनन पर तन-मन वारूँ, गुरु न तजूँ हरि को तज डारूँ।

आज कल यह बात सुनने में आती है कि परम पुरुषार्थ प्राप्त करने के लिये ज्ञान पर्याप्त है। योग की आवश्यकता नहीं है। जो लोग ऐसा कहते हैं, वह ज्ञान शब्द के अर्थ पर गंभीरता से विचार नहीं करते। ज्ञान दो प्रकार का होता है-तज्ज्ञान और तद्विषयक ज्ञान। दोनों में अंतर है। कोई व्यक्ति अपना सारा जीवन रसायन आदि शास्त्रों के अध्ययन में बिताकर शक्कर के संबंध में जानकारी प्राप्त कर सकता है। शक्कर के अणु में किन किन रासायनिक तत्वों के कितने कितने परमाणु होते हैं? शक्कर कैसे बनाई जाती है? उसपर कौन कौन सी रासानिक क्रिया और प्रतिक्रियाएँ होती हैं? इत्यादि। यह सब शक्कर विषयक ज्ञान है। यह भी उपयोगी हो सकता है परंतु शक्कर का वास्तविक ज्ञान तो उसी समय होता है जब एक चुटकी शक्कर मुँह में रखी जाती है। यह शक्कर का तत्वज्ञान है। शास्त्रों के अध्ययन से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान है और उसके प्रकाश में तद्विषयक ज्ञान भी पूरी तरह समझ में आ सकता हैं। इसीलिये उपनिषद् के अनुसार जब यम ने नचिकेता को अध्यात्म ज्ञान का उपदेश दिया तो उसके साथ में योगविधि च कृत्स्नम्‌ की भी दीक्षा दी, नहीं तो नचिकेता का बोध अधूरा ही रह जाता। जो लोग भक्ति आदि की साधना रूप से प्रशंसा करते हैं उनकोश् भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि यदि उनके मार्ग में वित्त को एकाग्र करने का कोई उपाय है तो वह वस्तुत: योग की धारणा अंग के अंतर्गत है। यह उनकी मर्जी है कि सनातन योग शब्द को छोड़कर नये शब्दों का व्यवहार करते हैं।

योग के अभ्यास से उस प्रकार की शक्तियों का उदय होता है जिनको विभूति या सिद्धि कहते हैं। यदि पर्याप्त समय तक अभ्यास करने के बाद भी किसी मनुष्य में ऐसी असाधारण शक्तियों का आगम नहीं हुआ तो यह मानना चाहिए कि वह ठीक मार्ग पर नहीं चल रहा है। परन्तु सिद्धियों में कोई जादू की बात नहीं है। इंद्रियों की शक्ति बहुत अधिक है परंतु साधारणत: हमको उसका ज्ञान नहीं होता और न हम उससे काम लेते हैं। अभयासी को उस शक्ति का परिचय मिलता है, उसको जगत्‌ के स्वरूप के संबंध में ऐसे अनुभव होते हैं जो दूसरों को प्राप्त नहीं हैं। दूर की या छिपी हुई वस्तु को देख लेना, व्यवहृत बातों को सुन लेना इत्यादि इंद्रियों की सहज शक्ति की सीमा के भीतर की बाते हैं परंतु साधारण मनुष्य के लिये यह आश्चर्यश् का विषय हैं, इनकों सिद्धि कहा जायगा। इसी प्रकार मनुष्य में और भी बहुत सी शक्तियाँ हें जो साधारण अवस्था में प्रसुप्त रहती हैं। योग के अभ्यास से जाग उठती हैं। यदि हम किसी सड़क पर कहीं जा रहे हो तो अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए भी अनायास ही दाहिने बाएँ उपस्थित विषयों को देख लेंगे। सच तो यह है कि जो कोई इन विषयों को देखने के लिये रुकेगा वह गन्तव्य स्थान तक पहुँचेगा ही नहीं ओर बीच में ही रह जायगा। इसीलिये कहा गया है कि जो कोई सिद्धियों के लिये प्रयत्न करता है वह अपने को समाधि से वंचित करता है। पतंजलि ने कहा है:

 

 

 

 

 

 

 

 

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